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जैन न्याय
वत्तासे या ज्ञान, इच्छा और प्रयत्नवाला होनेसे, या ज्ञान, इच्छा और प्रयत्नपूर्वक व्यापार करनेसे पृथिवी आदिका कारण है ? प्रथम पक्षमें कुम्भकार आदिको भी पृथिवी आदिका कारण होने का प्रसंग आता है, क्योंकि सत्तामात्र तो उनमें भी है। दूसरे पक्षमें योगिजन भी पृथिवी आदिके कर्ता हो सकेंगे। तीसरा पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि जिसका शरीर नहीं है वह ज्ञान, इच्छा और प्रयत्नवाला नहीं हो सकता। तथा शरीरसे रहित व्यक्ति व्यापार भी नहीं कर सकता। व्यापार या तो कायकृत होता है या वचनकृत होता है । जिसके शरीर नहीं है, उसमें दोनों ही व्यापार नहीं हो सकते। किसीको भी इस प्रकारको प्रतीति नहीं होती कि मुझे ईश्वरने वचन या कायके द्वारा इस कार्यमें प्रेरित किया है। तथा व्यापारका मतलब है क्रिया। ईश्वरमें क्रिया हो नहीं सकती; क्योंकि वह आकाश. की तरह सर्वव्यापक है। यदि ईश्वर सक्रिय है तो वह सर्वदा तदवस्थ नहीं रह सकता और ऐसा होनेसे अनित्यताका प्रसंग आता है। सर्वथा नित्य और एकरूप तो वही हो सकता है जिसकी अवस्थामें रंच मात्र भी परिवर्तन न हो। इसमें परमाणुसे व्यभिचार नहीं आता; क्योंकि हमें परमाणुकी भी परिणमन रूपसे अनित्यता इष्ट है । यदि आप ईश्वरको भी परिणमन रूपसे अनित्य मानते हैं तो अनित्य होनेसे वह भी कार्य होगा और तब उसके लिए कोई दूसरा बुद्धिमान् कर्ता मानना होगा और ऐसी स्थितिमें अनवस्था दोष आता है। यदि अनित्य होकर भी ईश्वरका कोई बुद्धिमान् कर्ता नहीं है तो कार्यत्व हेतुको ईश्वरसे ही व्यभिचार आता है।
तथा, ईश्वर प्रत्येक कार्यके लिए एकदेशसे व्यापार करता है या सर्वात्मना व्यापार करता है। यदि एकदेशसे व्यापार करता है तो जितने कार्य हैं उतने हो ईश्वरके अवयव होने चाहिए। और ऐसी स्थितिमें ईश्वरको निरंश माननेकी बात नहीं बनती। यदि ईश्वर, प्रत्येक कार्यके लिए सर्वात्मना व्यापार करता है तो जितने कार्य हैं उतने ही ईश्वर मानने होंगे और तब ईश्वरके एक होने की प्रतिज्ञाको क्षति पहुँचेगी। तथा ईश्वरमें रचनेकी इच्छा और संहार करने की इच्छा क्या एक साथ होती हैं या क्रमसे । यदि एक साथ होती है तो सृष्टि और संहारका एक साथ प्रसंग आता है। यदि क्रमसे होती है तो उसका कारण बतलाइए। यदि वह कारणकी अपेक्षा करती है तो नित्य नहीं हो सकती।
नैयायिक-यद्यपि इच्छा, प्रयत्न आदि नित्य हैं तथापि विचित्र सहकारियोंके सान्निध्यसे विचित्र कार्योंको करते हैं।
जैन-वे सहकारी उस ईश्वरके अधीन हैं या नहीं ? यदि नहीं हैं तो उन्हींसे कार्यत्व हेतुमें, व्यभिचार आता है। यदि ईश्वरके अधीन हैं तो वे सहकारी उसी
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