________________
प्रमाणके भेद
सिद्ध होनेपर हेतु कालात्ययापदिष्ट नहीं होता, और हेतुके कालात्ययापदिष्ट न होनेसे उसीसे ईश्वरके सद्भावकी सिद्धि होती है । दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है; क्योंकि ईश्वरके सद्भावका साधक किसी अन्य प्रमाणका अभाव है । अथवा ईश्वरका सद्भाव रहे फिर भी उसके अदृश्य होने में कारण क्या शरीरका अभाव है या विद्या वगैरहका प्रभाव है अथवा जातिविशेष है ? पहला पक्ष तो ठीक नहीं है । यदि ईश्वर अशरीर है तो वह कार्योंका कर्ता नहीं हो सकता । अतः ईश्वर, पृथिवी वगैरहका कर्ता नहीं है क्योंकि वह अशरीर है जैसे मुक्तात्मा ।
नैयायिक — कर्तापनेकी सामग्री में शरीर सम्मिलित नहीं है । शरीर के अभाव
-
जैन
-
में भी ज्ञान, इच्छा और प्रयत्नका आश्रय होने मात्र से कर्तापन देखा जाता है । -यह ठीक नहीं है । आत्माका शरीर से सम्बन्धका नाम ही सशरीरपना है । उसके होनेपर ही अपने शरीर में या अन्यत्र कार्यका कर्तापना बनता है । शरीरके अभाव में मुक्तात्माकी तरह ईश्वर ज्ञानादिका भी आश्रय नहीं हो सकता; योंकि ज्ञानकी उत्पत्तिमें शरीर निमित्त कारण है । यदि निमित्त कारण शरीर के अभाव में भी ईश्वर में ज्ञान रहता है तो मुक्तात्मामें भी ज्ञान होना चाहिए । नैयायिक – ज्ञानादिक नित्य हैं, अतः उक्त दोष ठीक नहीं है ।
1
जैन — ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ज्ञानादिकी नित्यता रूपसे कहीं भी प्रतीति नहीं होती । तथा 'ईश्वर के ज्ञानादि नित्य नहीं हैं, ज्ञानादि होनेसे जैसे 'हमारे ज्ञानादि' इस अनुमानसे भी विरोध आता है । यदि ईश्वर के ज्ञानादि अन्य ज्ञानादिमें पाये जानेवाले स्वभावका अतिक्रमण करते हैं तो वृक्षादिमें भी दृष्ट स्वभावका अतिक्रम मानना होगा । अतः ज्ञानादिको शरीर के द्वारा सम्पाद्य ही मानना चाहिए । ऐसी स्थिति में शरीर अकिंचित्कर कैसे हो सकता है ? यदि ईश्वर विद्या आदिके प्रभावके कारण अदृश्य है तो कभी तो वह अवश्य दिखाई देना चाहिए । जो विद्याधारी या तान्त्रिक होते हैं वे सर्वदा अदृश्य नहीं पाये जाते । यदि कहा जायेगा कि अन्य विद्याधारियोंसे ईश्वर विलक्षण है अतः उसमें दृष्ट स्वभावका अतिक्रमण देखा जाता है तो जगत् रूप कार्य भी संसारके अन्य कार्यों से विलक्षण है अतः अन्य कार्यों में पाये जानेवाले स्वभावका उसमें अतिक्रमण होना सम्भव है ।
पिशाच आदिकी तरह ईश्वरको जाति विशिष्ट है इसलिए वह अदृश्य है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, जाति तो अनेक व्यक्तियोंमें रहती है और ईश्वर एक है अतः उसमें जाति विशेषका होना सम्भव नहीं है । अथवा ईश्वर यदि अदृश्य है तो रहे, किन्तु वह सत्तामात्र से पृथिवी आदिका कारण है, या ज्ञान
२४
Jain Education International
१८४
For Private & Personal Use Only
*
www.jainelibrary.org