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जैन न्याय अधिष्ठित अनेकोंको ही करना चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं है । कार्यका कर्तापना अनेक प्रकारसे देखा जाता है। कहीं एक व्यक्ति के द्वारा एक कार्य किया जाता है जैसे जुलाहेके द्वारा वस्त्र । कहीं एकके द्वारा अनेक कार्य किये जाते हैं, जैसे कुम्हारके द्वारा घट, सकोरे आदि । कहीं अनेकोंके द्वारा अनेक कार्य किये जाते हैं, जैसे कुम्हार आदिके द्वारा घट, वस्त्र, मुकुट, गाड़ी वगैरह । कहीं अनेकोंके द्वारा एक कार्य किया जाता है, जैसे दोमकोंके द्वारा बामी । उनका कोई एक अधिष्ठाता नहीं है। अनेक कारीगर एक सूत्रकारके द्वारा अधिष्ठित होकर प्रवृत्ति करते देखे जाते हैं, इसलिए यदि एक ईश्वरको जगत्का अधिष्ठाता मानते हो तो अनेक दीमके किसी एकके द्वारा अधिष्ठित हुए बिना ही कार्य करती देखी जाती है, अतः जगत् ईश्वरके द्वारा अधिष्ठित हुए बिना ही प्रवृति करे तो क्या हानि है ? दोनों ही प्रतीतियां समान रूपसे प्रमाण हैं। दो प्रकारके कार्य देखे जाते हैं। कुछ कार्य तो बुद्धिमान् कर्ताके द्वारा रचे जाते हैं जैसे घट । कुछ कार्य बुद्धिमान् कर्ताके बिना ही होते हैं जैसे स्वयं उगनेवाली वनस्पति । इस तरह जब दोनों ही प्रकारको प्रतीतियाँ प्रमाण हैं तो दोनों ही प्रकारके कार्योंकी सिद्धि सम्भव है। यदि कहा जायेगा कि स्वयं उगनेवाली वनस्पतिको भी हम वृक्ष पृथिवी वगैरहमें सम्मिलित करते हैं अतः उससे व्यभिचार नहीं आता, तब तो कोई हेतु व्यभिचारी नहीं ठहरेगा; क्योंकि जिससे व्यभिचार आता होगा उसको ही पक्षमें सम्मिलित कर लिया जायेगा। तथा ईश्वरकी बुद्धि आदिसे भी हेतुमें व्यभिचार आता है; क्योंकि ईश्वरको बुद्धि भी कार्य है, फिर भी अपने समवायी कारण ईश्वरसे भिन्न किसी अन्य बुद्धिमान् कर्ताके द्वारा उसकी रचना नहीं होती। यदि उसको भी किसी अन्य बुद्धिमान् कर्ताकी कृति मानेंगे तो अनवस्था दोष आता है । तथा कार्यत्वहेतु कालात्ययापदिष्ट है; क्योंकि स्वयं उगे हुए अंकुरोंमें कर्ताका अभाव प्रत्यक्षसे ही निश्चित है ।
नैयायिक-जो दृश्य होते हुए भी प्रत्यक्षसे दिखाई नहीं देता उसीका प्रत्यक्षसे अभाव सिद्ध होता है। ईश्वर तो दृश्य नहीं है तब प्रत्यक्षसे उसका अभाव कैसे सिद्ध हो सकता है।
जैन-उक्त कथन भी ठीक नहीं है । यदि ईश्वरका किसी प्रमाणसे सद्भाव सिद्ध हो तो यह कहा जा सकता है कि चूंकि ईश्वर अदृश्य है, अतः उसका अनुपलम्भ है। किन्तु उसका सद्भाव इसी प्रमाणसे सिद्ध होता है या अन्य किसी प्रमाणसे ? प्रथम पक्षमें चक्रक दोष आता है। इसी प्रमाणसे ईश्वरका सद्भाव सिद्ध होनेपर ईश्वरके अदृश्य होनेसे उसका अनुपलम्भ सिद्ध होता है, और उसके
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