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________________ प्रमाणके भेद १८३ जायेगा, किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि धूमादि अनुमानसे रसोईघर तथा अन्यत्र पायी जानेवाली साधारण अग्नि आदिका बोध हो सकता है। किन्तु उस तरह यहाँ बुद्धिमान् साधारण कर्ताको प्रतिपत्ति सम्भव नहीं है। क्योंकि इस अनुमानसे ऐसे कर्ता सामान्यकी प्रतीति हो सकती है, जिसका आधार दृश्य होदृष्टिगोचर हो। जिसका आधार अदृश्य है ऐसे कर्ताकी प्रतिपत्ति इस अनुमानसे नहीं हो सकती। आशय यह है कि पृथिवी वगैरह किसी बुद्धिमान् कर्ताको बनायी हुई हैं, क्योंकि कार्य हैं, जैसे घर। इस अनुमानसे घटको बनानेवाले कुम्हारके समान ही सशरीर अल्पज्ञ कर्ताकी सिद्धि हो सकती है सर्वव्यापी नित्य आदि ईश्वरकी सिद्धि नहीं हो सकती। नैयायिक-सशरीर अल्पज्ञ व्यक्ति पथिवी आदिका निर्माण नहीं कर सकता। अत: उनका कर्ता असाधारण ही सिद्ध होता है। जैन-ऐसा कहना भी ठीक नहीं है इससे तो पृथिवी वगैरहमें कर्ताके अभावका ही प्रसंग आता है। क्योंकि साधारण कर्तासे भिन्न किसी असाधारण कर्ताकी प्रतीति कभी भी नहीं होती। नैयायिक-जिसको कारकोंको शक्तिका ज्ञान नहीं है वह कार्यका कर्ता नहीं हो सकता, अन्यथा सब व्यक्तियोंको सब कार्योके कर्ता होने का प्रसंग आता है। और हम लोगोंको पथिवी आदिके सब कारकोंकी शक्तिका ज्ञान नहीं है। क्योंकि परमाणु आदि अतीन्द्रिय हैं। अत: चूंकि ईश्वरको समस्त कारकोंकी शक्तिका परिज्ञान है अतः वही पृथिवी आदिका कर्ता सिद्ध होता है। जैन-उक्त कथन भी अविचारित रमणीय है। सूत्रधार ( मकान बनानेवाला ) आदिको धर्मादिका ज्ञान नहीं होता फिर भी वह मकान बनाता है । और प्रारम्भ किये हए कार्यके सम्पन्न न होनेसे जैसे सत्रधार आदिमें धर्मादि समस्त कारकोंका अपरिज्ञान सिद्ध होता है वैसे ही ईश्वरके द्वारा प्रारम्भ किये हुए अंकुरादि कार्य भी सम्पन्न नहीं होते, अत: ईश्वरको भी समस्त कारकोंका अपरिज्ञान सिद्ध होता है। नैयायिक-यद्यपि ईश्वरको समस्त कारकोंका परिज्ञान है, तथापि उपभोक्ताओंके अदृष्टवश प्रारब्ध कार्य निष्पन्न नहीं होते । जैन-तो सूत्रधार आदिके सम्बन्धमें भी यही बात कही जा सकती है । अथवा ईश्वरको समरत कारकोंका परिज्ञान रहो। फिर भी एक व्यक्ति समस्त कारकोंका अधिष्ठाता नहीं हो सकता। अनेक व्यक्ति भी अनेक कारकों के अधिछाता हो सकते हैं । समस्त कार्य एकको ही करना चाहिए अथवा एकके द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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