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जैन न्याय
लब्धि रूप हेतुसे उसीका अभाव सिद्ध होता है। किन्तु वह दृश्यानुपलब्धि यहाँ नहीं है; क्योंकि पृथिवी आदिका कर्ता अदृश्य है । यदि अनुपलब्धि मात्रको अभावका साधक माना जायेगा तो बड़ी गड़बड़ी उपस्थित होगी।
शंका--ईश्वर तो परम दयालु है, वह परोपकारके लिए ही प्रवृत्त होता है। यदि वह जगत्का कर्ता होता तो दुःख देनेवाले शरीरादिकी रचना न करता। यदि वह इस प्रकारको दुःखदायक सामग्री रचता है तो वह परमदयालु नहीं हो सकता।
समाधान-ईश्वर धर्म और अधर्मकी सहायतासे शरीरादिकी रचना करता है। वह जिस व्यक्तिका जैसा पुण्य या पाप होता है, उसके सुख या दुःखरूप फलके भोगके लिए उसी प्रकारका शरीर वगैरह बनाता है। 'संसारसे प्राणियोंको मुक्त करूंगा' ईश्वर तो इस परोपकार वृत्तिसे ही प्रवृत्ति करता है । और मुक्ति प्राणियोंके पुण्य और पापके क्षयसे होती है। और पुण्य-पापका क्षय उनका फल भोगे बिना नहीं होता। अतः परम दयालु होते हुए भी भगवान् दुःखदायक शरीरादिकी रचना करता है ।
शंका-ईश्वर भी यदि धर्म और अधर्मवश प्रवृत्ति करता है तो धर्म और अधर्मसे ही सब कार्य उत्पन्न हो जायेंगे, ईश्वरकी कल्पनासे क्या लाभ है ? ___ समाधान-धर्म और अधर्म तो अचेतन हैं। चेतनसे अधिष्ठित होकर हो वे अपने कार्यमें प्रवृत्त होते हैं । शायद कहा जाये कि हम लोगोंकी आत्मासे अधिष्ठित होकर धर्म-अधर्म अपने-अपने कार्यमें प्रवृत्ति कर सकते हैं । किन्तु ऐसा कहना युक्त नहीं है क्योंकि हमारी आत्माको अदृष्ट तथा परमाणु वगैरहका ज्ञान नहीं है और अचेतन अकस्मात् प्रवृत्ति नहीं कर सकता, अन्यथा जो कार्य निष्पन्न हो चुका है उसमें भी वह प्रवृत्ति कर सकता है; क्योंकि अचेतनको कोई विवेक तो है नहीं।
उत्तरपक्ष-जैनोंका कहना है कि पृथिवी आदिको किसी बुद्धिमान्की कृति सिद्ध करने के लिए ईश्वरवादियोंने जो कार्यत्व हेतु दिया है, उसका क्या अर्थ है ? सावयवत्वका नाम कार्यत्व है, या जो पहले नहीं था, उसका अपने कारणोंकी सत्तासे सम्बन्ध होनेका नाम कार्यत्व है, अथवा 'कृत' इस प्रकारकी बुद्धिका जो विषय है उसका नाम कार्यत्व है, अथवा विकारित्वका नाम कार्यत्व है ? यदि कार्यत्वका अर्थ सावयवत्व है तो सावयवत्वका क्या अर्थ है ? अवयवोंमें रहनेका
१. न्या० कु० च०, पृ० १०१ आदि। प्रमेय क० मा, पृ० २७० आदि ।
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