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जैन न्याय
वगैरह। यह कार्यरूप हेतु विरुद्ध भी नहीं है, क्योंकि जिनका कर्ता निश्चित है, ऐसे घटादिमें कार्यपना प्रसिद्ध ही है। यह हेतु अनैकान्तिक भी नहीं है; क्योंकि जिनका अकर्तृक होना निश्चित है, ऐसे आकाशादिमें कार्यपना नहीं रहता। यह हेतु कालात्ययापदिष्ट भी नहीं है; क्योंकि उस हेतुका साध्य कार्यपना प्रत्यक्ष और आगमसे अबाधित है। यह हेतु प्रकरण सम भी नहीं है; क्योंकि उसका समान बलशाली कोई प्रतिपक्षी हेतु नहीं है । अतः यह निर्दोष कार्यत्व हेतु बुद्धिमान् कर्ताको सिद्धि करता हआ, पक्षधर्मताके बलसे जगत्का निर्माण करने में समर्थ सर्वज्ञ कर्ताको सिद्ध करता है।
शंका-आपका कार्यत्व हेतु इष्टका विघात करता है। क्योंकि समस्त जगत्का कर्ता सर्वज्ञ, नित्य ज्ञान इच्छा प्रयत्नवाला, अशरीरी, बुद्धिमान् माना जाता है। किन्तु दृष्टान्त रूप घटादिका कर्ता अल्पज्ञ और सशरीर होता है। और दृष्टान्तमें जो धर्म देखे जाते हैं उनके अनुसार ही साध्यमिकी प्रतिपत्ति होती है । अतः चूंकि आपका हेतु जो धर्म आप सिद्ध करना चाहते हैं उससे विपरीत धर्मोंकी सिद्धि करता है, अतः वह विरुद्ध हेत्वाभास है । तथा दृष्टान्त साध्य विकल है; क्योंकि घटादिका कर्ता पृथिवी आदिकी तरह सर्वज्ञ और अशरीर नहीं है ।
समाधान-उक्त आपत्ति ठीक नहीं है। क्योंकि साध्य और साधनको विशेषके साथ व्याप्ति नहीं होती, यदि ऐसा हो तब तो कोई भी अनुमान नहीं बन सकता। व्याप्तिका अवधारण अन्वय-व्यतिरेकपूर्वक होता है। और विशेषोंमें अन्वय-व्यतिरेकका ग्रहण शक्य नहीं है। अतः कार्यत्व हेतुको व्याप्ति केवल बुद्धिमत्कर्तपूर्वकत्वके साथ ही मानना चाहिए, सर्वज्ञ अशरीर आदि कर्ताके साथ नहीं। कर्तापनेको सामग्रीमें शरीर नहीं आता। ज्ञान, चिकीर्षा ( करनेकी इच्छा ) और प्रयत्नसे ही कार्य होते हैं। शरीरके होते हुए भी कुम्भकारमें यदि ज्ञानादि न हों . तो वह घटका कर्ता नहीं हो सकता । पहले कार्यके उत्पादक कारणोंका ज्ञान होता है, फिर कार्यको करने की इच्छा होती है, फिर प्रयत्न किया जाता है, तब कार्य होता है। अतः कार्य करने में ये तीनों ही अव्यभिचारी कारण है। किन्तु ईश्वर चूंकि सभी कार्योको करता है, अतः वह सर्वज्ञ होना ही चाहिए; क्योंकि जो जिसका कर्ता होता है, वह उसके उपादान आदिको जानता है, जैसे घटको बनाने. वाला कुम्भकार मिट्टी वगैरहको जानता है। और ईश्वर जगत्का कर्ता है । जगत्के उपादान चार प्रकारके परमाणु हैं, निमित्तकारण अदृष्ट आदि है, भोक्ता आत्मा है, भोग्य शरीर आदि है । इनको जाने बिना कोई जगत्का कर्ता नहीं हो सकता। ईश्वर में पाये जानेवाले ज्ञानादि नित्य हैं क्योंकि कुम्भकारके ज्ञानादिसे
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