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प्रमाणके भेद
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उत्तर-सर्वज्ञके जान लेनेसे भविष्य निश्चित नहीं हो जाता, किन्तु जो होनहार है वह निश्चित है और उसे सर्वज्ञ जानता है । किन्तु इससे पुरुषार्थ एकदम व्यर्थ नहीं ठहरता। संसारमें बहुत-से कार्य ऐसे होते हैं, जिनमें दैवकी प्रधानता
और पुरुषार्थकी गौणता होती है; और बहत-से कार्य ऐसे होते हैं जिनमें पुरुषार्थको प्रधानता और दैवकी गौणता होती है। जैसे बम्बईके समुद्रतटपर खड़े जहाजमें विस्फोट होनेसे उसपर लदा सोना उड़-उड़कर तटसे दूर शहरके घरोंमें छत तोड़कर जा गिरा और उनमें रहनेवालोंको अनायास मिल गया। इसमें दैवको प्रधानता है । और सुबह से शाम तक श्रमपूर्वक तरह-तरहके उद्योग-धन्धे करके जो धनसंचय करते हैं, उनमें पुरुषार्थको प्रधानता है। सर्वज्ञका ज्ञान इन सबको जानता है। जो दैववादी हैं उनके भी भविष्यको जानता है, जो पुरुषार्थवादी हैं उनके भी भविष्यको जानता है । जो पुरुषार्थ करके उसमें सफल होंगे उनके भी भविष्यको जानता है और पुरुषार्थ करके उसमें सफल नहीं होंगे, उनका भी भविष्य जानता है। किन्तु किसीका भविष्य वह बनाता या बिगाड़ता नहीं है। उसका बनाना या बिगाड़ना तो स्वयं उस व्यक्तिके ही हाथमें है । स्वयं अपने पुरुषार्थसे ही वह उसे बनाता या बिगाड़ता है। क्योंकि जिसे हम दैव कहते हैं वह भी तो पूर्व जन्म में किया हुआ पुरुषार्थ ही है। किन्तु वह निश्चित है और उसे सर्वज्ञ जानता है । यहाँ इतना और समझ लेना चाहिए कि पुरुषार्थकी सफलताका मतलब 'जो नहीं होनेवाला हो उसका होना' नहीं है, किन्तु जो होनेवाला हो उसको बना लेना ही पुरुषार्थकी सफलता है। इस तरह जैन दर्शनमें निरावरण केवलज्ञानको सकल प्रत्यक्ष माना है और केवलज्ञानीको सर्वज्ञ सर्वदर्शी कहा है।
ईश्वरवाद समीक्षा पूर्वपक्ष-न्याय वैशेषिक दर्शन ईश्वरवादी हैं। वे ईश्वरके ज्ञानको नित्य मानकर उसे सर्वज्ञ मानते हैं और ईश्वर तथा उसकी सर्वज्ञताकी सिद्धि इस प्रकार करते हैं
पृथिवी वगैरह किसी बुद्धिमान् कर्ताके द्वारा बनायी गयी हैं, क्योंकि कार्य हैं, जैसे घट वगैरह। यह हेतु असिद्ध नहीं है क्योंकि पृथिवी वगैरह सावयव हैं, अतः वे कार्य हैं । यथा-पृथिवी, पर्वत, वृक्षादि कार्य हैं; क्योंकि सावयव हैं, जैसे घट
१. न्या० कु० च०, पृ० ६७ वगैरह । प्रमेयक० मा०, पृ० २६६ । प्रशस्त० कन्दली, पृ० ५४ । प्रशस्त० व्योम, पृ० ३०१ । न्यायसूत्र ४।१।२० । न्यायवा० पृ० ४५७४६७ । न्या० वा० ता० टी०, पृ० ५१८ । न्यायम० पृ० १६४ ।
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