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________________ प्रमाणके भेद १७५ मीमांसक - - सूक्ष्म आदि पदार्थोंका प्रत्यक्ष ज्ञान आप किसके सिद्ध करते हैं - अर्हन्तके, या जो अर्हन्त नहीं है उसके, अथवा सामान्य आत्माके ? यदि अर्हन्तके सिद्ध करते हैं तो अर्हन्त तो अप्रसिद्ध हैं अतः आपके अनुमानमें अनेक दोष आते हैं । यदि अनर्हत् के सिद्ध करते हैं तो आपको जो बात इष्ट नहीं है वह भी माननी पड़ेगी; क्योंकि आप तो अर्हन्तके ही सूक्ष्म आदि पदार्थोंका प्रत्यक्ष मानते हैं, अनर्हत् के नहीं मानते । यदि सामान्यात्माके सूक्ष्म आदि पदार्थोंका प्रत्यक्षत्व सिद्ध करते हैं तो अर्हन्त और अनर्हत् ( जो अर्हन्त नहीं ) को छोड़कर अन्य सामान्यात्मा कौन है, जिसके आप सूक्ष्म आदि पदार्थोंका प्रत्यक्ष होना सिद्ध करते हैं ? जैन - न हम अर्हत् के सूक्ष्म आदि पदार्थोंका प्रत्यक्षत्व सिद्ध करते हैं और न अनर्हत् । किन्तु किसी पुरुष - विशेषके सिद्ध करते हैं । और उसके सिद्ध होनेपर वह पुरुष विशेष अर्हन्त ही प्रमाणित होता है क्योंकि उसका उपदेश प्रत्यक्ष और युक्ति अविरुद्ध ठहरता है । अतः उक्त दोष नहीं आते । शङ्का - सर्वज्ञ अतीतकाल आदिमें रहनेवाली वस्तुको उसी रूपसे जानता है या वर्तमानरूपसे ? यदि वह अतीत कालीन वस्तुको अतीतरूपसे जानता है तो उसका ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह अवर्तमान वस्तुको विषय करता है । जो अवर्तमान वस्तुको विषय करता है वह प्रत्यक्ष नहीं है, जैसे स्मरण वगैरह | चूँकि सर्वज्ञका ज्ञान अतीत अनागत अर्थको विषय करता है, अत: वह अवर्तमान वस्तुग्राही होनेसे प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । यदि वह अतीतकालीन वस्तुको वर्तमान रूपसे जानता है तो उसका ज्ञान भ्रान्त हुआ क्योंकि जो अन्य रूपसे स्थित पदार्थको उससे भिन्न रूपसे जानता है वह ज्ञान भ्रान्त होता है, जैसे एक चन्द्रमाको दो चन्द्रमा के रूपमें जानना । चूंकि सर्वज्ञका ज्ञान अतीत अनागत कालवर्ती अर्थोको वर्त्तमानरूपसे जानता है अतः वह भ्रान्त है । उत्तर - जो वस्तु जिस रूपमें है, उसको उसी रूपमें जानता है । किन्तु इससे अवर्तमान वस्तुका ग्राहक होनेसे सर्वज्ञका ज्ञान अप्रत्यक्ष नहीं ठहरता; क्योंकि वह स्पष्ट रूप से अपने विषयको ग्रहण करता है । निकट देश और वर्तमान रूपसे अर्थको जानना प्रत्यक्षका लक्षण नहीं है । अन्यथा अपनी गोद में बैठे हुए बालकके शरीरमें क्रिया वगैरहको देखकर जो उसमें जीवके सद्भावका ज्ञान होता है, वह भी प्रत्यक्ष कहा जायेगा । किन्तु हम लोगोंको जीवका प्रत्यक्ष तो होता नहीं । अतः स्पष्ट रूपसे अर्थका प्रतिभास होना ही प्रत्यक्ष है । इसलिए यदि सर्वज्ञको अतीत १. न्या० कु० च०, पृ० ८८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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