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________________ प्रमाणके भेद ૧૦× इसी 'जितनी भी पर्याय हैं वे सब अनेक क्षणस्थायी होनेसे क्षणिक हैं, जैसे घट, तरह धर्मादि भी हैं ।' मीमांसकोंको किसी प्रमाणसे पर्यायत्व और अनित्यत्यकी व्याप्ति सिद्ध करनी ही चाहिए, अन्यथा वे धर्म आदिको पर्याय मानकर अनित्य सिद्ध नहीं कर सकते । अतः किसी अपेक्षा धर्म भी अनुमेय है अर्थात् अनुमान प्रमाणसे धर्मको जाना जा सकता है । तथा यदि स्वभाव, देश और कालसे विप्रकृष्ट पदार्थोंको आप अनुमेय नहीं मानते तो सुखादिको अनुमानसे जानना व्यर्थ क्यों नहीं है ? क्योंकि सुखका मानस प्रत्यक्ष होता है । मीमांसक - जो सदा अविप्रकर्षी है, उनको अनुमानसे जानना हमें इष्ट नहीं है ? जैन - तो फिर अनुमानसे आपको किन पदार्थोंका जानना इष्ट है ? मीमांसक -कभी अविप्रकृष्ट पदार्थोंको और कभी ऐसे देशादि विप्रकृष्ट पदार्थोंको, जिनका अविनाभावी लिंग ज्ञात है, अनुमानसे जानना इष्ट है । जैन- -तब आप बुद्धिको अनुमानसे कैसे जान सकेंगे; क्योंकि बुद्धि तो सदा अप्रत्यक्ष है । और आपके शास्त्र में लिखा है कि अर्थके ज्ञान होनेपर बुद्धिको अनुमानसे जानते हैं । अतः जब सदा परोक्ष बुद्धिको भी अनुमानसे जाना जा सकता है, तो सदा परोक्ष धर्मादिको भी अनुमानसे जाना जा सकता है । अतः धर्मादि भी अनुमेय हैं इसलिए वे किसीके प्रत्यक्ष भी होने ही चाहिए । अथवा अनुमेयका अर्थ श्रुतज्ञानके द्वारा जानने योग्य करना चाहिए । क्योंकि मतिज्ञानके 'अनु' अर्थात् पोछे जो 'मेय' अर्थात् जाना जाये, वह अनुमेय है । मतिज्ञानके पश्चात् श्रुतज्ञान होता है । अतः सूक्ष्म आदि पदार्थ किसीके प्रत्यक्ष हैं; क्योंकि श्रुतसे ( वेदसे ) उनका ज्ञान हो सकता है । यह बात असिद्ध नहीं है; क्योंकि मीमांसक स्वयं मानता है कि वेद त्रिकालवर्ती सूक्ष्म आदि पदार्थोंको ज्ञान करा सकने में समर्थ है । अतः अनुमेय सूक्ष्म आदि पदार्थ किसीके प्रत्यक्ष अवश्य हैं । मीमांसक- - सूक्ष्म आदि पदार्थ अनुमेय तो हों, किन्तु किसीके प्रत्यक्ष न हों तो क्या बाधा है ? --- जैन- - इसका तात्पर्य यह हुआ कि अग्नि अनुमेय तो हो, किन्तु किसीके भी प्रत्यक्ष न हो । ऐसा होनेसे अनुमान प्रमाणका ही उच्छेद हो जायेगा | क्योंकि सभी अनुमानोंमें इस तरहका दोष दिया जा सकता है। अतः अमान प्रमाणको माननेवाले मीमांसकों को अनुमेय होनेसे सूक्ष्म आदि पदार्थोंको किसी प्रत्यक्ष ज्ञानका विषय मानना ही चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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