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जैन न्याय . मीमांसक-'आवरणके दूर हो जानेपर निष्कलंक आत्मा भो दूरवर्ती पदार्थका प्रत्यक्ष कैसे कर सकता है ? कैसी ही निर्दोष और अंजन वगैरहसे संस्कारित चक्षु हो, क्या वह देशविप्रकृष्ट, कालविप्रकृष्ट और स्वभावविप्रकृष्ट पदार्थोंको प्रत्यक्ष करती हुई देखी गयी है ? इसी तरह ग्रहण वगैरहके उपद्रवसे मुक्त तथा मेघपटलके आवरणसे रहित सूर्य भी अपने योग्य वर्तमान पदार्थोंका हो प्रकाशन करता है न कि अयोग्य अतीत और अनागत पदार्थोंका। इसी तरह राग आदि भावकर्मोंसे तथा ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्मोंसे मुक्त निष्कलंक आत्मा समस्त दूरवर्ती पदार्थों का प्रत्यक्ष कैसे कर सकता है ? भले ही कोई मुक्तात्मा हो, किन्तु वेदके प्रामाण्यमें उससे रुकावट नहीं आ सकती; क्योंकि धर्मके विषय में तो वेद ही प्रमाण है, मुक्तात्मा प्रमाण नहीं है, मुक्तात्मा तो आनन्द स्वभाव है, वह धर्मको नहीं जानता। कहा भी है-'हम पुरुषमें केवल धर्मज्ञताका निषेध करते हैं। धर्मको छोड़कर अन्य सब वस्तुओंको यदि कोई पुरुष जानता है तो कौन उसे रोकता है।' ___मीमांसकको उक्त आपत्तिका उत्तर देते हुए जैन कहते हैं-स्वभावविप्रकृष्ट परमाणु वगैरह, कालविप्रकृष्ट राम वगैरह, देशविप्रकृष्ट हिमवान् वगैरह किसीके प्रत्यक्ष हैं क्योंकि अनुमेय है अर्थात् उन्हें अनुमान प्रमाणसे जाना जा सकता है, जैसे अग्नि । यदि कोई यह कहता है कि स्वभावविप्रकृष्ट, देशविप्रकृष्ट और कालविप्रकृष्ट पदार्थ अनुमानसे नहीं जाने जा सकते तो वह अनुमान प्रमाणका ही मूलोच्छेद करता है, क्योंकि जितने भी पदार्थ हैं, वे सब क्षणिक है' इत्यादि व्याप्तिज्ञानके अभावमें यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि 'इसलिए सब पदार्थ क्षणिक हैं'। अनुमान तो ऐसे पदार्थों का ज्ञान करनेके लिए ही उपयोगी है जिन्हें हम प्रत्यक्ष नहीं देख सकते, क्योंकि जो पदार्थ प्रत्यक्ष गोचर हों उनके निर्णयके लिए अनुमानका प्रयोग व्यर्थ है। अतः जो दार्शनिक सत्त्वकी अनित्यत्वके साथ व्याप्ति बनाते हैं उनको सब पदार्थोंको अनुमेय मानना ही पड़ेगा । अतः सब पदार्थोके अनुमेय होनेसे उनका प्रत्यक्ष होना भी जरूरी है।
मीमांसक-कुछ अर्थ प्रत्यक्ष होते हैं, जैसे घट वगैरह । जिनका अविनाभावीलिंग प्रत्यक्षसे जाना जा सकता है ऐसे कुछ पदार्थ अनुमेय होते हैं, और कुछ पदार्थ ऐसे होते हैं जिन्हें हम आगमसे ही जान सकते हैं, जैसे धर्म वगैरह। ऐसे पदार्थ किसी भी पुरुषके प्रत्यक्ष आदि गोचर नहीं होते।
जैन--ऐसा कहना अनुचित है। किसी अपेक्षा धर्म भी अनुमेय है। यथा
१. अष्टस० पृ० ५५। २. तत्त्यसं०, पृ० ८१७ ।
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