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________________ प्रमाणके भेद जानता देखता है तब उसके लिए दूरी और निकटताका प्रश्न नहीं रहता। अब प्रश्न होता है कि ज्ञानावरण आदि कर्मोंका अभाव हो जानेपर यह आत्मा परी तरहसे व्यामोहरहित कैसे हो जाता है जिससे वह अर्थ पर्याय और व्यंजनपर्याय स्वरूप समस्त अतीत, अनागत और वर्तमान पदार्थों को साक्षात् जानता है ? इसका उत्तर इस प्रकार है-जो जिसके होनेपर ही होता है वह उसके अभावमें नहीं ही होता। जैसे अग्निके अभावमें धूम नहीं होता। ज्ञानावरण आदि कर्मोंका सम्बन्ध होनेपर ही आत्मामें अज्ञान होता है अतः उनके अभावमें वह नहीं होता। यह निश्चित है। __ शङ्का-पूरी तरहसे अज्ञानसे रहित आत्मा भी समीप देशवर्ती और समीप कालवर्ती पदार्थों को ही जान सकता है, न कि दूरदेशवर्ती और दूरकालवर्तीको भी? उत्तर-ऐसा कहना अयुक्त है; क्योंकि न तो समीपता ज्ञान में कारण है और न दूरता अज्ञानका कारण है। आंखमें लगा अंजन आँखके अत्यन्त समीप होता है किन्तु आँखसे अंजनका ज्ञान नहीं होता। किन्तु चन्द्र-सूर्यको दूरवर्ती होते हुए भी आँख देख लेती है। शायद कहा जाये कि आँखमें अत्यन्त निकटवर्ती पदार्थको जान सकनेकी योग्यता नहीं है किन्तु योग्य दूरवर्तो पदार्थों को जान सकनेको योग्यता है तो योग्यताको ही ज्ञानका कारण मानना चाहिए, निकटता और दूरता तो व्यर्थ हैं। और ज्ञानको रोकनेवाले कर्मका क्षयोपशम अथवा क्षय होनेपर एक देशसे अथवा पूरी तरहसे अज्ञानका दूर हो जाना ही योग्यता है । अतः जिसका अज्ञान प्ररी तरहसे दूर हो जाता है वह सबको देखता जानता है। कहा भी है-जो ज्ञान स्वभाव है वह 'प्रतिबन्धकके अभावमें ज्ञेयपदार्थों को क्यों नहीं जानेगा? क्या प्रतिबन्धकके अभावमें अग्नि जलने योग्य पदार्थोंकी नहीं जलाती है ?' इसीसे समस्त पदार्थों को जानने में इन्द्रियोंकी अपेक्षा नहीं रहती जैसे अंजन वगैरहसे संस्कारित चक्षुवाले मनुष्यको प्रकाशकी अपेक्षा नहीं रहती। जो एक देशसे अज्ञानरहित होता है और थोड़ा-बहुत जान सकता है उसीको इन्द्रियोंको अपेक्षा रहती है। किन्तु जिसका समस्त अज्ञान नष्ट हो चुका है उस सर्वदर्शी पुरुषको इन्द्रियोंकी अपेक्षा नहीं रहती। यदि उसे भी इन्द्रियोंकी अपेक्षा रहेगी तो वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता। क्योंकि साक्षात् अथवा परम्परासे इन्द्रियोंका सम्बन्ध एक साथ सब पदार्थों के साथ नहीं हो सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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