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________________ १७० जैन न्याय लम्भ मानते हैं, अतः उनके माननेसे जो ज्ञापकोपलम्भ सिद्ध हैं हम उसका अभाव सिद्ध करते हैं। किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि हम जैनलोग जो सर्वज्ञके ज्ञापकका उपलम्भ मानते हैं, हमारा वह मानना प्रमाण है या अप्रमाण है ? यदि वह प्रमाण है तब तो आपको भी सर्वज्ञके ज्ञापक प्रमाणका उपलम्भ मानना चाहिए: फिर आप उसका निषेध क्यों करते हैं ? और यदि वह हमारा मानना अप्रमाण है तो उसके आधार पर आप अभाव प्रमाणसे ज्ञापकानुपलम्भको सिद्धि नहीं कर सकते । अतः सर्वज्ञके ज्ञापक प्रमाणका अनुपलम्भ सर्वज्ञके अस्तित्वमें बाधक नहीं हो सकता, क्योंकि वह सिद्ध नहीं हो सका। इसलिए सर्वज्ञके बाधक प्रमाणका सुनिश्चित अभाव ही सर्वज्ञका साधक है। क्योंकि जो वस्तु असत् होती है उसके बाधक प्रमाणका सुनिश्चित रूपसे अभाव नहीं होता। जैसे मरी. चिकामें होनेवाला जलज्ञान झूठा है, अतः उसका बाधक प्रमाण है। किन्तु सर्वज्ञका बाधक कोई प्रमाण नहीं है, यह सुनिश्चित है । अतः सर्वज्ञ अवश्य है।' __इस तरह अष्टसहस्रीके रचयिता स्वामी विद्यानन्दने मीमांसकका निराकरण करते हुए सर्वज्ञकी सिद्धि इस आधारपर की है कि मीमांसक जो छह प्रमाण मानता है, उनमें से कोई भी प्रमाण ऐसा नहीं है जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि कोई पुरुष सर्वज्ञ नहीं है। अतः सर्वज्ञके अस्तित्व में बाधक किसी प्रमाणके न होनेसे सर्वज्ञकी सत्ता सिद्ध की गयी है। आगे दूसरे प्रकारसे वे सर्वज्ञकी सत्ता सिद्ध करते हैं मीमांसक' मानता है कि वेदके द्वारा विशिष्ट पुरुषोंको भूत, वर्तमान और भावी पदार्थोंका तथा विप्रकृष्ट, पदार्थोंका ज्ञान हो सकता है। इससे स्पष्ट है कि आत्मामें सकल पदार्थोंको जानने की शक्ति है । तथा अनुमान प्रमाणके लिए व्याप्ति ज्ञान आवश्यक है। और व्याप्ति ज्ञानका विषय समस्त देश और समस्त काल होता है । जैसे, 'जो सत् है वह सब अनेकान्तात्मक होता है' यह व्याप्ति ज्ञान है, जो सत् मात्रको विषय करता है। इस व्याप्ति ज्ञानसे भी यह स्पष्ट है कि आत्मामें सब पदार्थों को जाननेकी शक्ति है । अब प्रश्न यह होता है कि जब आत्मामें सब पदार्थों को जाननेकी शक्ति है और वह ज्ञान स्वभाव है, तो वह सबको जानता क्यों नहीं है ? इसका उत्तर यह है कि, जैसे मदिरा पीने से मनुष्य उसके नशासे ग्रस्त हो जाता है वैसे ही ज्ञानावरण आदि कर्मोंके सम्बन्धसे आत्मामें अज्ञानका उदय होता है। और कर्मोंका अभाव होनेपर जब वह पूरी तरहसे व्यामोहसे मुक्त हो जाता है तो समस्त अतीत, अनागत और वर्तमान पदार्थोंको १. अष्टस०, पृ० ४६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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