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________________ १६८ जैन न्याय कोई हैं हो नहीं। सभी पुरुष स्वभावसे हो सूक्ष्म परमाणु आदिको, दूर देशान्तरवर्ती सुमेरु आदिको और कालान्तरवर्ती राम-रावण आदिको प्रत्यक्ष देख सकने में असमर्थ हैं-अतः सर्वज्ञ नहीं है।' उत्तरपक्ष जैनोंका कहना है कि मोमांसक कुमारिलका उक्त कथन अविचारितरम्य है । सर्वज्ञका निराकरण नहीं किया जा सकता क्योंकि उसका कोई बाधक नहीं है । शायद कहा जाये कि सतको विषय करनेवाले पांच प्रमाण हैं और वे पांचों प्रमाण सर्वज्ञका अस्तित्व नहीं बतलाते । अतः सर्वज्ञके ज्ञापकका अभाव हो सर्वज्ञका बाधक है। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि इसपर यह प्रश्न होता है कि 'सर्वज्ञका ज्ञापक प्रमाण नहीं पाया जाता' यह बात आप अपने अनुभवके आधारपर कहते हैं या सबके अनुभवके आधार पर कहते हैं ? यदि आप अपने अनुभवके आधारपर कहते हैं तो आपको तो दूसरेके मनके विचारोंका भी पता नहीं है तब क्या उनका भी अभाव कहा जायेगा? और यदि सबके अनुभवके आधारपर कहते हैं तो आपको यह ज्ञान कैसे हुआ कि देशान्तर और कालान्तरवर्ती सव मनुष्योंको सर्वज्ञको बतलानेवाले किसी प्रमाणका पता नहीं था ? इसोसे तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें कहाँ है-सर्वज्ञका ज्ञापक ( बतलानेवाला) कोई प्रमाण नहीं है' यदि यह आप अपने व्यक्तिगत अनुभवके आधारपर कहते हैं, तब तो 'समुद्रमें कितने घड़े पानी है' यह बात आप नहीं जानते तो क्या समुद्र के पानी की घड़ोंके रूपमें कोई माप ही नहीं है ? यदि आप यह बात सब व्यक्तियोंके अनुभवके आधारपर कहते हैं तो अल्पज्ञानी पुरुष सब मनुष्योंके व्यक्तिगत अनुभवोंको नहीं जान सकता, अतः वह ऐसी बात कैसे कह सकता है ? और यदि कोई ऐसा व्यक्ति है जो देशान्तर और कालान्तरवर्ती सब मनुष्योंके अनुभवोंको जानता है तो फिर आप सर्वज्ञका निषेध क्यों करते हैं ? क्योंकि 'सबको सर्वज्ञके ज्ञापक प्रमाणको अनुपलब्धि है' यह बात चक्षु आदि इन्द्रियोंसे जानी नहीं जा सकतो; क्योंकि अतीन्द्रिय है । न अनुमानसे जानी जा सकती है क्योंकि उसका सूचक कोई लिंग नहीं है। जब प्रत्यक्ष और अनुमानसे नहीं जाना जा सकता तो फिर अर्थापत्ति और उपमान प्रमाणकी तो गति ही कहां है ? क्योंकि यदि सबको सर्वज्ञके ज्ञापकका अनुपलम्भ न होता तो अमुक बात न होती। चूंकि अमुक बात १. सर्वज्ञविषयक पूर्वपक्षके लिए देखें-तत्त्वसंग्रह पृ० ८३०, अष्टसहस्री पृ० ४५, प्रमेयक० मा० पृ० २४७ । २. पृ० १३, का० १३ आदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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