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________________ प्रमाणके भेद १६. शायद कहा जाये कि-'गृद्धको बहुत दूर तककी वस्तुएँ दिखाई देती हैं, शूकरको बहुत दूर तकका शब्द सुनाई देता है, चींटीको बहुत दूरसे आनेवाली गन्धका ज्ञान हो जाता है, बिलाव-उल्ल आदिको बिना प्रकाशके ही वस्तुओंका प्रत्यक्ष होता है, कात्यायन नामके ऋषिको विलक्षण अनुमान ज्ञान था, और मीमांसकोंके गुरु जैमिनिको वेदार्थका विलक्षण ज्ञान था । अतः यह कैसे कहा जा सकता है कि जैसे प्रत्यक्षादि प्रमाण आजकलके पुरुषोंके हैं, वैसे ही देशान्तर और कालान्तरमें भी थे ?' ऐसा कहना भी उचित नहीं है; क्योंकि गृद्ध वगैरहको भी इन्द्रिय आदि सामग्रोके बिना रूप आदिका ज्ञान नहीं होता । वे भी अपने नियत विषयको ही जान सकते हैं, अतीन्द्रिय वस्तुका ज्ञान इनको भी नहीं हो सकता। कहा भी है-"जहां भी अतिशय देखा गया है, वह अपने विषय की मर्यादाके अन्दर ही देखा गया है । दूरवर्ती सूक्ष्म पदार्थको देखने में समर्थ चक्षु शब्दादिको ग्रहण नहीं कर सकता और न श्रोत्र रूपको ग्रहण कर सकता है। तथा जिन मनुष्योंमें बुद्धि आदिका अतिशय देखा जाता है, उनमें भी वह अतिशय तरतमांश रूपसे ही देखा जाता है। कोई भी मनुष्य अतीन्द्रिय पदार्थको नहीं देख सकता । 'बुद्धिमान मनुष्य भी, सूक्ष्म पदार्थों को देखने में समर्थ होते हुए भी, अपनी जातिका अतिक्रमण न करते हुए ही, अन्य मनुष्योंसे विशिष्ट जानता है।' 'एक मनुष्य किसी एक शास्त्रमे विलक्षण पारंगत हो जाता है । किन्तु इतने से हो उसे अन्य शास्त्रोंका ज्ञान नहीं हो जाता।' जैसे व्याकरण शास्त्रका गम्भीर अध्ययन करनेसे शब्दों और अपशब्दोंका ज्ञान खूब हो जाता है, किन्तु ऐसा होनेसे नक्षत्र, तिथि, ग्रहण वगैरह का निर्णय नहीं किया जा सकता; क्योंकि यह तो ज्योतिष शास्त्रका विषय है।' इसी तरह चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण आदिको बतलाने में दक्ष ज्योतिषी भी शब्दोंकी साधुता और असाधुताको नहीं जान सकता। अर्थात जैसे व्याकरणशास्त्रका ज्ञाता ज्योतिविद्याको नहीं जानता वैसे ही ज्योतिषशास्त्रका जानकार व्याकरणशास्त्रकी बातोंको नहीं जान सकता।' इसी तरह वेद और इतिहासका विशिष्टसे विशिष्ट ज्ञानी भी स्वर्ग, देवता और पुण्य-पापको प्रत्यक्ष नहीं देख सकता।' 'जो मनुष्य आकाशमें दस हाथ ऊँचा कूद सकता है वह सैकड़ों वर्ष अभ्यास करनेपर भी एक योजन ऊँचा नहीं कूद सकता।' अत: लोकप्रसिद्ध इन्द्रिय प्रत्यक्ष से विलक्षण अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष नामका कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है। शायद कहा जाये कि किसी विशिष्ट पुरुषके अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष हो सकता है, किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि विशिष्ट पुरुष १. मी० श्लो० वा०, चोदनासूत्र, का० ११४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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