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प्रमाणके भेद
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और आकाश द्रव्योंको, मूर्तिक और अमूर्तिकको, अनागत तथा अतीत पर्यायोंको जानता है उसे अतीन्द्रिय ज्ञान कहते हैं । ___ अतः अतीन्द्रिय ज्ञानी सर्वज्ञ होता है । सर्वज्ञत्व समीक्षा
मीमांसक किसी सर्वज्ञको सत्ताको स्वीकार नहीं करता, क्योंकि वह ईश्वरको । नहीं मानता और जीवको सर्वज्ञताका विरोधी है। वह वेदको अपौरुषेय और स्वतःप्रमाण मानता है। शावरभाष्यमें लिखा है कि वेद भूत, वर्तमान और भविष्य पदार्थोंका तथा सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थों का ज्ञान कराने में समर्थ है।
जैन परम्परा प्रत्येक शुद्ध आत्मा अर्थात् परमात्माको सर्वज्ञ, सर्वदर्शी मानती है । अतः सर्वप्रथम समन्तभद्राचार्यने अपने आप्तमीमांसा नामक प्रकरणमें सर्वज्ञकी सिद्धि तर्कपद्धति के आधारपर करते हुए लिखा है कि सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ किसीके प्रत्यक्ष हैं क्योंकि वे अनुमेय है। जो-जो अनुमेयअनुमान प्रमाणका विषय होता है, वह-वह प्रत्यक्ष भी देखा जाता है, जैसे अग्निको हम धमके द्वारा अनुमानसे जानते हैं तो उसका प्रत्यक्ष भी होता है । शावरभाष्यके टोकाकार कुमारिलने अपने श्लोकवातिक आदि ग्रन्थों में जैनोंकी सर्वज्ञताविषयक मान्यताको समीक्षा की है। सर्वज्ञताके विषयमें कुमारिलका पूर्वपक्ष ___ कुमारिल कहते हैं कि जैनोंका कहना है कि सर्वज्ञका बाधक कोई प्रमाण नहीं है, इसलिए सर्वज्ञ अवश्य है। हमारा कहना है कि सर्वज्ञका साधक कोई प्रमाण नहीं है, इसलिए सर्वज्ञ नहीं है। विशेष इस प्रकार है-सर्वज्ञका साधक प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं हो सकता; क्योंकि इस समय हम किसी भी सर्वज्ञको नहीं देखते । अनुमान प्रमाण भी सर्वज्ञका साधक नहीं है; क्योंकि सर्वज्ञका अनुमापक कोई ऐसा लिंग दिखाई नहीं देता जिसको देखकर हम यह अनुमान कर सकें कि कोई सर्वज्ञ है। नित्य आगम जो वेद है, उसमें भी सर्वज्ञका कोई उल्लेख नहीं है; क्योंकि वेदका प्रधान विषय तो यज्ञ-याग आदि ही है, उसीमें वह प्रमाण माना जाता है। शायद कोई कहे कि वेदमें ‘स सर्ववित् स लोकवित्'-हिरण्य
१. 'चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्म व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवं जातीयकमर्थमवगम
यितुमलम्'-शावरभाष्य १-१-२ । २. अष्टसहस्री, पृ० ४५ आदि । ३. मी० श्लो० वा०, पृ० ८१-८२ ।
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