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जैन न्याय
दोलायमान ज्ञानको संशय कहते हैं। विपरीत चिन्तनका नाम विपर्यय है, और आधे चिन्तन और आधे अचिन्तनका नाम अनध्यवसाय है। विपुलमति चिन्तित विषयको तो जानता ही है, किन्तु अर्धचिन्तितको और जिसका आगे चिन्तन किया जायेगा ऐसे अचिन्तित विषयको भी जानता है । तथा यह ऋजुमतिज्ञानकी तरह ईहा मतिज्ञानपूर्वक भी नहीं होता। किन्तु एकदम अपने विषयको जान लेता है। ___ कालकी अपेक्षा जघन्य रूपसे सात-आठ भवोंको और उत्कृष्ट रूपसे असंख्यात भवोंको विपुलमति मनःपर्ययज्ञान जानता है। और क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्यसे योजना पृथक्त्व और उत्कृष्टसे मानुषोत्तर पर्वतके भीतर स्थित जीवोंके मनोगत विषयोंको जानता है। मानुषोत्तर पर्वतसे गोलाकार क्षेत्र न लेकर ४५ लाख योजनका धनप्रतर रूप क्षेत्र लेना चाहिए। अर्थात् ४५ लाख योजन लम्बा और उतना ही चौड़ा क्षेत्र जानना किन्तु ऊँचाई पैंतालीस लाखसे कम है अतः विपुलमति मन:पर्य यज्ञानके उत्कृष्ट क्षेत्रको धनरूप न कहकर घनप्रतर कहा है । इससे मानुषोत्तर पर्वतके बाहर चारों कोनों में स्थित देवों और तिर्यंचोंके द्वारा चिन्तित विषयको भी उत्कृष्ट विपुलमति मनःपर्ययज्ञान जानता है। धवलाटोकाके अनुसार जो उत्कृष्ट मन:पर्ययज्ञानी मानुषोत्तर पर्वत और मेरुपर्वतके मध्यमें मेरुपर्वतसे जितनी दूर होगा उस ओर उसी क्रमसे उसका क्षेत्र मानुषोत्तर पर्वतके बाहर बढ़ जायेगा और दूसरी और मानुषोत्तर पर्वतसे उसका क्षेत्र उतना ही दूर रह जायेगा।
सकल प्रत्यक्ष सकल' प्रत्यक्षको केवलज्ञान कहते हैं। क्योंकि वह असहाय होता है अर्थात् परनिरपेक्ष तथा एकाको ही होता है । यह पूर्ण अतीन्द्रिय है। इस अतीन्द्रिय ज्ञानका स्वरूप बतलाते हुए आचार्य कुन्दकुन्दने लिखा है।
"अपदेसं सपदेस मुत्तममुत्तं च पज्जयनजादं । पलयं गदं च जागदि तं णाणमदिदियं भणिदं ॥ ४१ ॥"
[प्रवचनसार-ज्ञानाधिकार ] अर्थात् जो अप्रदेशी परमाणु और कालाणुको, सप्रदेशो जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म १. अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा, तमेव प्राप्तक्षयोपशमं प्रक्षीणावरणं वा.
प्रतिनियतं प्रत्यक्षम्। सर्वार्थसि० पृ० १२ । 'तत् द्वेधा-देशप्रत्यक्षं सकलप्रत्यक्षं च । देशप्रत्यक्षमवधिमनःपर्य यज्ञाने। सर्वप्रत्यक्ष केवलम् ।'-सर्वार्थसि० पृ० ६६ ।
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