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जैन न्याय
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जाते हैं । परमावधि और सर्वावधि में अननुगामी भेद भवान्तरको अपेक्षासे कहा है; क्योंकि इन ज्ञानोंके धारक जीव दूसरा भव धारण नहीं करके मोक्ष चले जाते हैं ।
मन:पर्ययज्ञान
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दूसरेके े मनोगत अर्थको मन कहते हैं; क्योंकि वह अर्थ मनमें रहता है । उस मनोगत अर्थको आत्माकी सहायता से जो प्रत्यक्ष जानता है उस ज्ञानको मन:पर्ययज्ञान कहते हैं । अर्थात् किसी जीवने मनके द्वारा जिस सचेतन अथवा अचेतन अर्थका विचार किया है उसको आत्माके द्वारा मन:पर्ययज्ञान प्रत्यक्ष जानता है । अथवा मनको पर्यायको मन:पर्यय कहते हैं । उसके सम्बन्धसे ज्ञान भी मन:पर्यय कहलाता है । अतः मन:पर्ययरूप जो ज्ञान है उसे मन:पर्यय ज्ञान कहते हैं अर्थात् अर्थके निमित्त से होनेवाली मनकी पर्यायोंको मन:पर्यय कहते हैं और उनके ज्ञानको मन:पर्यय ज्ञान कहते हैं ।
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मन:पर्यय ज्ञानके उक्त दोनों लक्षणों में अन्तर है । प्रथम लक्षण अथवा व्युत्पत्ति के अनुसार मन:पर्यय ज्ञान मनोगत अर्थको जानता है । किन्तु दूसरे लक्षण अथवा व्युत्पत्ति के अनुसार उस अर्थका विचार करनेसे जो मनकी दशा होती है। उस दशा अथवा पर्यायोंको मन:पर्यय ज्ञान जानता है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में दूसरा लक्षण ही मान्य है । श्वेताम्बराचार्यों के अनुसार मन:पर्यय ज्ञान मनको पर्यायोंको जानता है और मनकी उन पर्यायोंके आधारपर अनुमान से उस बाह्य पदार्थको जानता है जिसका विचार करनेसे मनकी वे पर्यायें हुईं। इसीसे वे इसे मन:पर्ययज्ञान भी कहते हैं । दिगम्बर परम्परामें पहला लक्षण ही मान्य है । मन:पर्ययज्ञानके दो भेद हैं - एक ऋजुमति और एक विपुलमति । ऋजुमति मनःपर्ययके ऋजुमनोगत, ऋजुवचनगत और ऋजुकायगत विषयकी अपेक्षा तीन
१. मन:पर्ययज्ञानका विशेष कथन जानने के लिए षट्खण्डागम पु० १३, पृ० ३२८३४४ देखें |
२. 'परकीय मनोगतोऽर्थो मन इत्युच्यते साहचर्यात् तस्य पर्ययेणं परिगमनं मन:पर्ययः ।' - सर्वार्थ०, १-१० ।
३. 'मनसः पर्ययः मन:पर्ययः, तत्साहचर्याज्ज्ञानमपि मन:पर्ययः । मन:पर्ययश्च सज्ञानं च तत् मन:पर्ययज्ञानम् । - ज० ६०, १ भा०, पृ० १६ |
४. 'मनोमात्र साक्षात्कार मन:पर्ययज्ञानम् । मनः पर्यायानिदं साक्षात् परिच्छेत्तुमलम्, बाह्यानर्थान् पुनस्तदन्यथानुपपत्याऽनुमानेनैव परिच्छिनत्तीति द्रष्टव्यम्' – जैन तर्क ०
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पृ० ८ ।
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