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जैन न्याय
अवधिज्ञान
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादाको लिये हुए, रूपी द्रव्योंको जो बिना इन्द्रिय आदिकी सहायताके स्पष्ट जानता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं । अवधिका अर्थ है, पुद्गलोंको जाननेवाला । तथा अवधिका अर्थ मर्यादा भी होता है।
कारणकी अपेक्षासे अवधिज्ञानके दो भेद हैं-एक भवप्रत्यय और दूसरा गुणप्रत्यय । यद्यपि सभी अवधिज्ञान अवधिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमके होनेपर ही होते हैं फिर भी जो क्षयोपशम भवके निमित्तसे होता है उससे होनेवाले ज्ञानको भवप्रत्यय कहते हैं। जैसे 'पक्षीगण जो आकाशमें उड़ते हैं उनके उड़ने में पक्षी कुलमें जन्म लेना ही कारण है, उन्हें उड़नेकी शिक्षा नहीं दी जाती। इसी तरह देवों और नारकियोंके व्रत नियम वगैरह नहीं होने पर भी सबको जन्मसे ही अवधिज्ञान होता है। इतना विशेष है कि उनमें जो सम्यग्दष्टि होते हैं उनके अवधिज्ञान होता है और जो मिथ्यादृष्टि होते हैं उनके कुअवधिज्ञान होता है । अतः वहाँ भव ही प्रधान कारण है इसलिए उसे भवप्रत्यय अवधिज्ञान कहते हैं।
तथा सम्यादर्शन आदि गुणोंके निमित्तसे जो क्षयोपशम होता है उससे होनेवाले अवधिज्ञानको गुणप्रत्यय कहते हैं। इसका दूसरा नाम क्षयोपशम निमित्तक भी है क्योंकि इसके होने में क्षयोपशम ही कारण होता है, भव कारण नहीं है। यह अवधिज्ञान तिर्यञ्च और मनुष्योंके होता है।
विषयको अपेक्षासे अवधिज्ञानके तीन भेद हैं-देशावधि, परमावधि और सर्वावधि । भवप्रत्यय अवधिज्ञान देशावधि ही होता है और गुणप्रत्यय अवधिज्ञान तीनों प्रकारका होता है। देशावधिका उत्कृष्ट विषय, क्षेत्रकी अपेक्षा सम्पूर्ण लोक, कालकी अपेक्षा एक समय कम पल्य, द्रव्यकी अपेक्षा ध्रुवहारसे एक बार भाजित कार्मणवर्गणा और भावकी अपेक्षा द्रव्यकी असंख्यात लोक प्रमाण पर्यायें हैं । अर्थात् उत्कृष्ट देशावधिज्ञान सम्पूर्ण लोकाकाशमें वर्तमान कार्मणवर्गणामें एक बार ध्रुवहारका भाग देनेसे जो प्रमाण आये उतने परमाणुओंके स्कन्धोंको अथवा उनसे स्थूल स्कन्धोंको जानता है। तथा उन स्कन्धोंकी, एक समय कम एक पल्यप्रमाण अतीतकालमें और उतने ही अनागत कालमें अपने जानने योग्य जो व्यंजन पर्याय हों उनको जानता है। और भावकी अपेक्षा उन स्कन्धोंकी असंख्यात लोक प्रमाण अर्थ पर्यायोंको जानता है ।
१. सर्वार्थसि०, १-२१ । २. सर्वार्थ०-१-२२। ३. अवधिज्ञानके विषयका विस्तृत कथन जाननेके लिए देखिए---षट्खण्डागम पु० १३, पृ० २६०-३२८ । तथा गो० जीवकाण्ड गा० ३७०-४३७ ।
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