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________________ प्रमाणके भेद उत्तर - यदि ऐसा माना जायेगा तो सदा एकका ही ज्ञान हुआ करेगा । जैसे, जंगलमें एक मनुष्य को देखकर एकका ही ज्ञान होता है, अनेक मनुष्योंका ज्ञान नहीं होता, वैसे ही नगर, वन, सेनाका पड़ाव आदिमें जानेपर भी हमें सदा एकका ही ज्ञान होगा । और इस तरह अनेक अर्थों को एक ज्ञानसे न जान सकने के कारण नगर, वन, सेना आदि शब्दोंका व्यवहार ही लुप्त हो जायेगा; क्योंकि 'अनेक मकानोंके समूहका नाम नगर है, वृक्षों वगैरहके झुण्डको वन कहते हैं और हाथी-घोड़ों वगैरह के समूहका नाम सेना है । दूसरे, यदि एक ज्ञान अनेक पदार्थों को नहीं जानता तो हाथकी अंगुलियोंमें जो छोटा-बड़ा व्यवहार होता है कि अमुक अंगुलिसे अमुक अंगुलि छोटी या बड़ी है यह आपेक्षिक व्यवहार समाप्त हो जायेगा। तीसरे, संशयका अभाव हो जायेगा; क्योंकि ज्ञानको एकार्थग्राही माननेपर या तो सीपका ही ज्ञान होगा या चांदीका ही ज्ञान होगा । एक साथ दोनोंका ज्ञान तो हो नहीं सकता । यदि केवल सीपका हो ज्ञान होगा तो उस समय चाँदीका ज्ञान न होनेसे 'यह सीप है या चाँदी ' यह संशय नहीं हो सकता । यदि केवल चाँदीका ही ज्ञान होगा तो भी सीपका ज्ञान न होनेसे संशय नहीं हो सकता । चौथे, सब कार्य अनियमित रूपसे होने लगेंगे । जैसे, कोई चित्रकार एक चित्र बनाता है चित्र बनाते समय उसे चित्रको रूपरेखा, उसके उपकरण और उनकी क्रिया वगैरहका ज्ञान रहना आवश्यक है । अब यदि ज्ञान एक ही अर्थको जानता है तो एक समय में एक ही बातका ज्ञान होनेसे उसका चित्र कुछका कुछ बन जायेगा । जब वह कूँचीको जानेगा तो रंगको भूल जायेगा, रंगको जानेगा तो कूँचीका ज्ञान नहीं होगा और न चित्रकी रूपरेखाका । पाँचवें, ज्ञानको एकार्थग्राही माननेसे 'ये दो हैं' 'ये तीन हैं' यह ज्ञान नहीं बन सकता क्योंकि एक ज्ञान दो तीन पदार्थोंको विषय नहीं कर सकता । अतः ज्ञानको अनेकार्थीका ग्राहक भी मानना ही चाहिए । अतः बहु बहुविध ज्ञानके होने में कोई रुकावट नहीं है । इस तरह सांव्यवहारिक प्रत्यक्षका कथन समाप्त मुख्य प्रत्यक्षका वर्णन करते हैं जो ज्ञान इन्द्रियादिकी आत्मा से ही होता है उसे मुख्य या पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं— देश प्रत्यक्ष और सकल प्रत्यक्ष | देश' प्रत्यक्षके भी दो भेद हैं- एक अवधि - ज्ञान और एक मन:पर्यय ज्ञान । किया जाता है । आगे सहायता के बिना केवल कहते है उसके दो भेद १. 'देशप्रत्यक्ष मवधिमन:पर्ययज्ञाने ।'- सर्वार्थ० १ -२० । Jain Education International १५६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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