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जैन न्याय
होता है। इस प्रकारका जो प्रत्यभिज्ञान होता है वह भी अनिसृत ज्ञान है। तथा रसोई-घरमें अग्निके होनेपर ही धूमको देखा और तालाबमें अग्निके अभावमें धूमका भी अभाव देखा। यह देखकर यह जानना कि सब देश और सब कालोंमें अग्निके होनेपर ही धुआं होता है और अग्निके अभावमें नहीं होता यह तर्क नामका ज्ञान है । इस तरह अनिसृत अर्थको विषय करनेवाले अनुमान, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क ये चारों मतिज्ञान परोक्ष हैं; क्योंकि इनमें एक देशसे भी स्पष्टता नहीं है। इनके सिवा स्पर्शन आदि इन्द्रियाँ और मनके द्वारा जो बहु बहुविध आदिका मतिज्ञान होता है वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है क्योंकि उसमें एकदेशसे स्पष्टता पायी जाती है।'
ऊपर बतलाया है कि तत्त्वार्थ सूत्र में स्मृति आदि ज्ञानोंको मतिज्ञानके ही अन्दर गिनाया है तथा मतिज्ञानको परोक्ष कहा है। किन्तु अकलंकदेवने एकदेश स्पष्ट इन्द्रियजन्य ज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा और स्मृति आदिको परोक्ष प्रमाण कहा, क्योंकि उनमें थोड़ी-सी भी स्पष्टता नहीं होती। और स्पष्टता न होने का कारण यह है कि इन ज्ञानोंका विषय इन्द्रियोंके सामने नहीं होता । अतः ये अनिसृतग्राही है । किन्तु तत्त्वार्थसूत्रमें अवग्रह ईहा आदि ज्ञानोंको भी अनिसृतग्राही बतलाया है और ये ज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष रूप मतिज्ञानके भेद हैं। अब प्रश्न होता है कि अनिसृत ज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है अथवा परोक्ष है ? गो० सा० के टीकाकारका तो कहना है स्मृति आदि अनिसृतग्राही ज्ञान तो परोक्ष है और शेष बहु आदिको विषय करनेवाले इन्द्रियजन्य ज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष हैं। इससे ऐसा प्रकट होता है कि टोकाकार अनिसतको अवग्रह आदि ज्ञानोंका विषय नहीं मानते। उन्होंने जो दृष्टान्तोंमें प्रयुक्त हाथी और चन्द्रमा आदिके ज्ञानको स्मृति आदि बतलाया है उससे तो यही प्रतीत होता है। किन्तु वैसा होनेसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्षके तीन सौ छत्तीस भेद नहीं हो सकते; क्योंकि उनके मतसे अनिसृतका ज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नहीं है किन्तु परोक्ष है । परन्तु मतिज्ञानके तीन सौ छत्तीस भेद होने में फिर भी कोई बाधा नहीं आती क्योंकि जैन सिद्धान्तमें मतिज्ञानको परोक्ष माना है और स्मृति प्रत्यभिज्ञान आदि अनिसृतग्राही ज्ञान भी मतिज्ञानके ही प्रकार हैं । अत: मतिज्ञानके तीन सौ छत्तीस भेदमें कोई बाधा नहीं है।
शंका-एक ज्ञान एक ही अर्थको जानता है, अनेक पदार्थों को जानने में वह असमर्थ है अत: बहु, बहुविध ज्ञान नहीं बन सकता?
१. तत्त्वार्थवार्तिक-१-१६ सू० ।
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