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जैन न्याय
कथंचित् भेद मानकर ही हो सकता है। हां, आत्मरूपकी अपेक्षा तो दर्शन और ज्ञानमें अभेद मानते ही हैं। क्योंकि ज्ञान भी आत्म-रूप है और दर्शन भी आत्मरूप है। किन्तु एक ही मतिज्ञान दर्शन और ज्ञानरूप नहीं हो सकता। यदि अवग्रहको दर्शन माना जायेगा तो शास्त्र में जो अवग्रहसे लेकर धारणा पर्यन्त ज्ञानको मत्तिज्ञान कहा है उसका व्याघात होगा। और यदि अवग्रहको दर्शन नहीं माना जायेगा तो 'अवग्रह मात्र ही दर्शन है' इस कथनका विरोध होगा। अतः अवग्रहसे भिन्न दर्शनको मानने अथवा न माननेपर आगम-विरोध आता है। क्योंकि आगममें मतिज्ञानके अट्ठाईस भेदोंसे दर्शनको भिन्न माना है। अतः छद्मस्थ दशामें ज्ञान ही दर्शन कैसे हो सकता है ? ____ अभयदेव सूरिके इस व्याख्यानको दूसरे श्वेताम्बराचार्य यशोविजयने अर्ध. जरती न्यायको उपमा दो है। बूढ़ी स्त्रोके आधे अंगको तो कामीजन पसन्द करते है और आधे अंगको पसन्द नहीं करते। इसका नाम अर्धजरती न्याय है। यशोविजय लिखते हैं-'प्राचीनता प्रेमके आग्रहवश श्रोत्रादि ज्ञानसे पहले भी दर्शनको मानना वजित नहीं है । किन्तु व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रहके बीच में दर्शन नहीं होता और न ऐसा उल्लेख ही है कि इन दोनों के मध्यमें दर्शन होता है । आगममें तो व्यंजनावग्रहके अन्तिम क्षणमें अविग्रहकी ही उत्पत्ति बतलायी है। तथा व्यंजनावग्रहसे पहले दर्शनकी कल्पना करना तो अत्यन्त अनुचित है । ऐसा होनेपर तो दर्शन इन्द्रिय और अर्थके सन्निकर्षसे भी निकृष्ट होनेसे अनुपयोग रूप ही हो जायेगा। और जब प्राप्यकारी इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानमें दर्शन नहीं माना जाता तो अन्यत्र उसको ज्ञानसे भिन्न मानने में कोई भी प्रमाण नहीं है। 'अस्पृष्ट विषयके ज्ञानको ही दर्शन कहते हैं। इस कथनसे सिद्धसेनने दर्शनको ज्ञानसे अभिन्न ही बतलाया है। यदि छद्मस्थके ज्ञानोपयोग में दर्शनोपयोगको हेतु माना जायेगा तो 'चक्षुसे ही दर्शन होता है, अन्यत्र नहीं होता' इसपर कैसे विश्वास किया जायेगा । अतः श्री सिद्धसेनाचार्यके द्वारा प्रतिपादित नये मतके अनुसार कहीं भी ज्ञान और दर्शनमें कालभेद नहीं है। किन्तु व्यंजनावग्रहके द्वारा विषय न किये गये अर्थका प्रत्यक्ष ही दर्शन है।"
आशय यह है कि आचार्य सिद्धसेन दर्शनमें और ज्ञानमें भेद नहीं मानते । उनका तर्क है कि दर्शनके भेदोंमें से एक भेदका नाम चक्षुदर्शन है । चक्ष अप्राप्यकारी है इसीसे उससे व्यंजनावग्रह नहीं माना, केवल अर्थावग्रह माना है। एक
१. शानबिन्दु, पृ० ४६ ।
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