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प्रमाणके भेद
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ओर चक्षुसे व्यंजनावग्रहका न होना और दूसरी ओर दर्शनके एक भेदका नाम स्पर्शन दर्शन या श्रोत्रदर्शन न रखकर चक्षुदर्शन रखना क्या कुछ विशेष अर्थ नहीं रखता ? दर्शनके दूसरे भेदका नाम अचक्षदर्शन है। इस अचक्षदर्शनमें चक्षु इन्द्रियके सिवा अन्य सभी इन्द्रियों और मनसम्बन्धी दर्शनका संग्रह माना जाता है। किन्तु आचार्य सिद्धसेन अचक्षदर्शनमें केवल मनसम्बन्धी दर्शनका ही ग्रहण करते हैं; क्योंकि चक्षुकी तरह मन भी अप्राप्यकारी है अतः उससे भी व्यं जनावग्रह नहीं होता। इसीसे उन्होंने व्यंजनावग्रहके द्वारा विषय न किये गये अर्थके प्रत्यक्ष को ही दर्शन कहा है । दर्शनकी यह परिभाषा नयी है, इसीसे यशोविजयजीने इसे नव्यमत कहा है। ___ हम पहले लिख आये हैं कि अक्लंकदेवने अवग्रहसे दर्शनको जुदा बतलाया है। सिद्धसेनके सन्मति सूत्र तथा उसकी व्याख्याको देखनेसे पता चलता है कि सिद्धसेनके पहले एक मत अवग्रहको ही दर्शन मानता था। किन्तु सिद्धसेन तथा अकलंक दोनोंको ही यह मत मान्य नहीं था अतः दोनोंने ही इस मतकी आलोचना को है।
इस तरह दर्शन और अवग्रहके विषयमें जैन परम्परामें मतभेद है। इस विषयपर गम्भीरतासे अध्ययन होनेको आवश्यकता है। ईहा आदिका स्वरूप ___ अवग्रहसे गृहीत अर्थमें विशेष जाननेकी आकांक्षा रूप ज्ञानको ईहा कहते हैं । जैसे यदि चक्षुके द्वारा शुक्ल रूपको ग्रहण किया तो यह शुक्ल रूप क्या वस्तु है ? कोई पताका है अथवा बगुलोंकी पंक्ति है ? अथवा यदि पुरुषका अवग्रह ज्ञान हआ तो यह पुरुष किस देशका है, किस उम्रका है आदि जाननेकी आकांक्षा ईहा है। श्वेताम्बरीय मान्यताके अनुसार शब्दको सुनकर 'यह शब्द होना चाहिए' इस प्रकारकी जिज्ञासाका होना ईहा है। ईहा ज्ञान संशय रूप नहीं है । एक वस्तु में परस्परमें विरुद्ध अनेक अर्थोके ज्ञानका नाम संशय है। यह संशय अवग्रहके पश्चात् और ईहासे पहले होता है । संशयके दूर होनेपर जब ज्ञान निश्चय के अभिमुख होता है तो उसीको ईहा कहते हैं । जैसे पुरुषका अवग्रह होने पर यह दाक्षिणात्य है अथवा उत्तरीय है इत्यादि संशय होता है। इसके पश्चात् जब वह निश्चयोन्मुख होता है कि अमुक होना चाहिए, वह ईहा है। ऊपर जो 'यह पताका है अथवा बगुलोंकी पंक्ति है' यह कहा है सो वह ईहा ज्ञानसे होनेवाले विकल्पोंको दृष्टान्त-द्वारा बतलाया है। ईहाके होते-होते तो उनमें से एक ही
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