________________
प्रमाणके भेद
सिद्धसेनके सन्मतिसूत्र या सन्मतितर्कपर दिगम्बराचार्य सुमतिदेवकी एक टोका' थी, जो अनुपलब्ध है। बौद्धाचार्य कमलशोलने तत्त्वसंग्रह ( प्रत्यक्ष परीक्षा ) को टीकामें 'सुमतेदिगम्बरस्य' लिखकर दिगम्बराचार्य सुमतिके मतका निर्देश किया है जिसके अनुसार सुमतिने कुमारिलके मतको आलोचना की है। सन्मतितर्कपर ईसाकी दसवीं शताब्दीके श्वेताम्बराचार्य अभयदेवको टीका वर्तमानमें उपलब्ध है। उन्होंने अपनी टीकामें सिद्धसेनके अभिप्रायके अनुसार पाँच ज्ञानों और चार दर्शनोंका स्वरूप इस प्रकार बतलाया है
'यद्यपि प्रमाण और प्रमेय, दोनों ही सामान्य-विशेषात्मक हैं किन्तु छद्मस्थ अवस्थामें दर्शनोपयोगके समय ज्ञानोपयोग नहीं हो सकता। अतः अप्राप्यकारी चक्षु और मनसे होनेवाले अर्थावग्रह आदि मतिज्ञानके उपयोगसे पूर्ववर्ती अवस्थाको चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन कहते हैं । और रूप आदिको ग्रहण करने रूप अवग्रह आदि परिणतिको मतिज्ञान कहते हैं । वाक्यको सुनने के निमित्तसे होनेवाले ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं । चक्षु आदि बाह्य निमित्तकी अपेक्षा बिना रूपी द्रव्यको ग्रहण करनेकी परिणति-विशेषको अवधिज्ञान कहते हैं। तथा रूपी द्रव्य सामान्यका पर्यालोचन करनेवाली उसी परिणतिविशेषको अवधिदर्शन कहते हैं। अढ़ाई द्वीप और समुद्र के अन्तर्वर्ती समस्त मनोविकल्पोंको इन्द्रियादिकी सहायताके बिना ग्रहण करने रूप परिणतिको मनःपर्ययज्ञान कहते हैं। ये सभी ज्ञान और दर्शन अपनेअपने आवरणके क्षयोपशमसे होते हैं। किन्तु अनन्तज्ञान स्वभाव आत्माका थोड़ाथोड़ा जान लेना ही वास्तविक रूप नहीं है । उसका वास्तविक रूप तो एक केवलज्ञान है जो सामान्य-विशेषात्मक समस्त वस्तुओंको एक साथ जानता है। अतः किन्हीने जो ऐसा व्याख्यान किया है-'अवग्रह रूप मतिज्ञान दर्शन है और वही ईहादि रूप होनेपर ज्ञान कहा जाता है। इससे भिन्न और कोई ग्राहक नहीं है जैसे, एक ही सर्प फण उठानेपर और फणको गिरा लेनेपर भी एक ही है वैसे ही एक ही बोध दर्शन और मतिज्ञान कहा जाता है ऐसा सूत्रकारका अभिप्राय है।' यह व्याख्यान असंगत है । क्योंकि यह आगम और युक्तिके विरुद्ध है।' ___ 'दर्शन और ज्ञानमें सर्वथा अभेद मानने पर पहले अवग्रहरूप दर्शन और फिर ईहा आदि ज्ञान होते हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता। यह कथन तो दोनोंमें
१. 'नमः सन्मतये तस्मै भवकूपनिपातिनाम् । सन्मतिविवृता येन सुखधामप्रवेशिनी ॥
२२ ॥ -पाश्वनाथचरित ( वादिराज )। २. तत्त्वसंग्रह, पृ० ३७६ | ३. सन्मति० टी०, पृ० ६२० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org