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________________ प्रमाणके भेद १४९ तथा एकान्त रूप दुराग्रहको छोड़कर मध्यस्थता धारण करके नयभेदसे व्याख्यान करे तो दोनों ही अर्थ घटित होते हैं । जिसका खुलासा इस प्रकार है-न्यायशास्त्रमें मुख्य रूपसे अन्य दर्शनोंका कथन रहता है। अब यदि कोई अन्य मतावलम्बी पूछता है कि जैन सिद्धान्तमें दर्शन और ज्ञान ये दो गुण जीवके बतलाये हैं ये कैसे घटित होते हैं ? तो उसको यदि यह कहा जाये कि आत्माके ग्राहकको दर्शन कहते हैं तो वह समझ नहीं सकता था। अतः आचार्योंने उनको समझानेके लिए 'दर्शन' का स्थूल व्याख्यान करके बाह्य विषयमें जो सामान्य सत्ताका अवलोकन होता है उसकी तो 'दर्शन' संज्ञा रखी और जो 'यह शक्ल है' इत्यादि विशेषका बोध होता है उसकी ज्ञान संज्ञा रख दो। इसलिए कोई दोष नहीं है। किन्तु सिद्धान्तमें मुख्य रूपसे अपने धर्मका कथन होता है। अतः उसमें आचार्योंने सूक्ष्म कथन करते हुए आत्माके ग्राहकको दर्शन कहा । अतः इसमें भी कोई दोष नहीं है।" दर्शनपूर्वक अवग्रह ज्ञानके होने और अवग्रहके स्वरूपमें मान्यता-भेद होनेसे प्रसंगवश दर्शनके स्वरूपके विषयमें भी मतभेदको चर्चा करनी पड़ी। अब प्रकृत च पर आने के लिए यहां हम दर्शन के विषयमें ही जयधवला से भी एक चर्चाको उद्धृत करते हैं । जो इस प्रकार है__ शंका~यदि ऐसा है तो अनाकार उपयोग भी मतिज्ञान हो जायेगा क्योंकि जिस पदार्थको लेकर अनाकार दर्शन होता है उसीको लेकर मतिज्ञान होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि अन्तरंग पदार्थको विषय करनेवाले उपयोगको दर्शन माना है इसलिए एक पदार्थको आलम्बन मानकर दर्शनोपयोगको जो मतिज्ञानत्वको प्राप्तिका प्रसंग दिया है वह नहीं रहता। शंका-दर्शनोपयोगको विषय अन्तरंग पदार्थ है यह कैसे जाना ? समाधान-यदि दर्शनोपयोगका विषय अन्तरंग पदार्थ न माना जाये तो वह अनाकार नहीं बन सकता। शंका-अव्यक्त ग्रहणको अनाकार ग्रहण कहते हैं ऐसा अर्थ क्यों नहीं किया ? समाधान नहीं, क्योंकि निरावरण होनेसे केवलदर्शनका स्वभाव व्यक्त ग्रहण करनेका है। अब यदि अव्यक्त ग्रहणको ही अनाकारग्रहण मान लिया जाता है तो केवलदर्शनके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। अतः विषय और १. भाग १, पृ० ३३७ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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