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जैन न्याय
- जायेगा तो जैसे नैयायिक मतमें ज्ञान अपनेको नहीं जानता, वैसे ही जैनमत में भी ज्ञान अपनेको नहीं जानेगा' यह दूषण आता है ।
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उत्तर -- नैयायिक मत में ज्ञान और दर्शन नामके दो भिन्न गुण नहीं हैं । अतः उसके मत में आत्माको न जाननेका दूषण आता है । किन्तु जैनमतमें ज्ञानगुण परद्रव्यको जानता है और दर्शन गुण आत्माको जानता है । अतः आत्माको न जानने का दूषण नहीं आता। क्योंकि जैसे एक ही अग्नि जलानेके कारण दाहक और पकाने के कारण पाचक इस तरह दो रूप कही जाती है वैसे ही अभेदनयसे एक ही चैतन्य भेदनयकी विवक्षा होनेपर विषय भेदसे दो रूप हो जाता है । जब वह चैतन्य आत्माको ग्रहण करता है तो उसे दर्शन कहते हैं । पीछे जब वह पर द्रव्यको ग्रहण करता है तो उसे ही ज्ञान कहते हैं । इसके विपरीत यदि सामान्यग्रहणको दर्शन और विशेषग्रहणको ज्ञान कहा जाता है तो ज्ञान प्रमाण नहीं ठहरता। क्योंकि प्रमाण वस्तुका ग्राहक है और वस्तु सामान्य- विशेषात्मक है किन्तु ज्ञान वस्तु के एकदेश विशेषको ही ग्रहण करता है, पूर्ण वस्तुको ग्रहण नहीं करता । और सिद्धान्त में निश्चयनयसे गुण और गुणोको अभिन्न बतलाया है अतः संशय, विपर्यय और अनध्यवसायसे रहित ज्ञान स्वरूप आत्मा ही प्रमाण है । वह आत्मा दीपककी तरह स्वमें और परमें विद्यमान सामान्य और विशेषको जानता है । इसलिए अभेद दृष्टिसे वही प्रमाण है ।
शंका -- यदि दर्शन बाह्य विषयको नहीं जानता तो वह अन्धेके तुल्य हुआ । अतः सभी मनुष्य अन्धे ठहरेंगे ?
उत्तर — ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि बाह्य विषय में दर्शनको प्रवृत्ति नहीं होनेपर भी आत्मा ज्ञानके द्वारा विशेष रूपसे सबको जानता है । इतना विशेष है कि जब दर्शन आत्माको ग्रहण करता है तो आत्माका अविनाभावी ज्ञान भी गृहीत हो जाता है और ज्ञानके गृहीत होनेपर ज्ञानकी विषयभूत बाह्य वस्तु भी गृहीत हो जाती है ।
शंका- यदि आत्माके ग्राहकको दर्शन कहते हैं तो 'जं सामण्णं ग्रहणं भावाणं' इत्यादि गाथाका अर्थ कैसे घटित होगा ?
उत्तर - सामान्य ग्रहण अर्थात् आत्मग्रहणको दर्शन कहते हैं क्योंकि आत्मा वस्तुओं को जानते समय 'मैं अनुकको जानू' और अमुकको न जानूँ, इस प्रकारका विशेष पक्षपात नहीं करता, किन्तु सामान्य रूपसे वस्तु मात्रको जानता है अत: सामान्य शब्दसे आत्मा कहा जाता है ।
अधिक कहने से क्या ? यदि कोई न्याय और सिद्धान्तके अभिप्रायको जानकर
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