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________________ प्रमाणके भेद १४७ उत्तर--ज्ञानसे पहले दर्शन होता है; क्योंकि आगममें छद्मस्थोंके दर्शनपूर्वक ज्ञानका होना बतलाया है । शंका--सिद्धान्तमें तो स्वरूपग्रहणको दर्शन कहा है। और यहाँ सामान्यग्रहणको दर्शन कहा है । यह कथन सिद्धान्तसे विरुद्ध क्यों नहीं है ? उत्तर--दोनों कथनोंमें अभिप्रायका भेद है। यह न्यायशास्त्र है। न्यायशास्त्र दूसरोंके विवादोंका निराकरण करता है। अतः अन्य न्यायशास्त्रियों द्वारा माने गये निर्विकल्पक दर्शनको अप्रमाण ठहराने के लिए स्याहादियोंने सामान्य ग्रहणको दर्शन कहा है, क्योंकि छद्मस्थ जीव जब स्वरूपको ग्रहण करते हैं उस समय वे बाह्य अर्थको ग्रहण नहीं कर सकते । और प्रामाण्य का विचार बाह्य अर्थ की अपेक्षासे ही किया जाता है; क्योंकि वह व्यवहारमें उपयोगी है। व्यवहारी पुरुष स्वरूपके प्रकाशनके लिए दीपकको नहीं खोजते । अतः दर्शन बाह्य अर्थविशेषके व्यवहारके लिए उपयोगी नहीं है। उसके लिए तो प्रमाण ज्ञान ही उपयोगी है क्योंकि वह सविकल्पक होता है। किन्तु यथार्थमें स्वरूप ग्रहणको ही दर्शन कहते हैं। इसीसे केवलोके दर्शन और ज्ञान एक साथ होते हैं। यदि सामान्य ग्रहणको दर्शन कहा जायेगा तो ज्ञानका विषय सामान्य-विशेषात्मक वस्तु नहीं ठहरेगी।' ___ इस चर्चासे स्पष्ट है कि जैन दार्शनिकोंमें दर्शनका जो स्वरूप माना जाता है वह सैद्धान्तिक परम्पराके अनुकूल नहीं है किन्तु दार्शनिक क्षेत्रकी गुत्थियोंको सुलझानेका परिणाम है। बृहद्रव्यसंग्रहके टीकाकारने दर्शनका सैद्धान्तिक और तार्किक रूप विस्तारसे बतलाया है । वे लिखते हैं-'न्यायशास्त्रके अभिप्रायसे सत्तावलोकन रूप दर्शनका व्याख्यान किया अब सिद्धान्तशास्त्रके अभिप्रायानुसार कहते हैं । जो प्रयत्न आगे होनेवाले ज्ञानकी उत्पत्तिमें निमित्त है उस प्रयत्न रूप जो अपनी आत्माका अवलोकन है उसको दर्शन कहते हैं। उस दर्शनके पश्चात् ही जो बाह्य विषयके विकल्प रूपसे पदार्थका ग्रहण होता है वह ज्ञान है । जैसे, कोई पुरुष घटको जान रहा है। पीछे उसका चित्त पटको जाननेके लिए हुआ। तब वह घटके विकल्पसे हटकर जो स्वरूपका अवलोकन करता है वह दर्शन है। उसके अनन्तर 'यह पट है' इस प्रकार जो बाह्य विषयका निश्चय करता है, वह ज्ञान है । शंका--यदि दर्शनको आत्माका ग्राहक और ज्ञानको परका ग्राहक कहा १. पृ० १७१-१७४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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