________________
१४४
जैन न्याय
दिगम्बर मान्यता
दिगम्बराचार्योंके विवेचनके साथ श्वेताम्बराचार्योंके उक्त मन्तव्योंकी तुलना करनेपर दोनोंमें बहुत अन्तर प्रतीत होता है। दिगम्बर परम्परामें अवग्रहका जो स्वरूप माना जाता है उसका आधार पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि है। उसमें लिखा है कि 'विषय और विषयीका सन्निपात होनेपर दर्शन होता है उसके पश्चात् जो अर्थका ग्रहण होता है उसे अवग्रह कहते हैं। जैसे चक्षसे सफेद रंगको ग्रहण करना । आचार्य अकलंकदेवने इसी लक्षणको अपनाया है । वे स्पष्ट रूपसे अवग्रहको निर्णयात्मक कहते हैं जब कि आगमके अनुयायी श्वेताम्बराचार्य अपायको ही निर्णयात्मक मानते हैं। किन्तु दार्शनिक श्वेताम्बराचार्योंने इस विषयमें भी अपने पूर्वज अकलंकका ही अनुसरण किया है। उदाहरणके लिए, अभयदेव सूरिने सन्मतितर्ककी दोकामें, आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी प्रमाण मीमांसामें और देव सूरिते अपने प्रमाणनय तत्त्वालोक नामक सूत्रग्रन्थमें अकलंकोक्त लक्षणको ही अपनाया है और अवनहको स्पष्ट रूपसे निर्णयात्मक माना है। इन दार्शनिकोंका कहना है कि अवग्रह दर्शनपूर्वक होता है। दर्शनका विषय सत्तासामान्य है अत: अवग्रह अवान्तर सामान्याकार मनुष्यत्व आदि जाति विशेषसे विशिष्ट वस्तुको ग्रहण करता है। किन्तु श्वेताम्बर दार्शनिक यशोविजयने दार्शनिक परम्पराका अनुसरण न करके श्वेताम्बर आगमिक परम्पराके अनुसार ही जैन तर्क भाषा और ज्ञानबिन्दुमें अवग्रहका निरूपण किया है ।
इस तरह अवग्रहके स्वरूपको लेकर श्वेताम्बर परम्पराके दार्शनिकों और आगमिकोंमें मतभेद है अथवा दार्शनिक इस विषयमें आगमिक मान्यताको स्थान नहीं देते, यह कहा जा सकता है । अवग्रहसे पहले होनेवाले दर्शनके स्वरूपको लेकर इसी तरहका एक मतभेद दिगम्बर परम्परामें भी पाया जाता है। चूंकि प्रकृत चर्चासे दर्शनका भी सम्बन्ध है अतः यहाँ दर्शनके विषयमें चर्चा करना अप्रासंगिक नहीं है।
दर्शन और अवग्रह दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओंमें दर्शनको अनाकार तथा सामान्य१. "विषयविषयिसन्निपाते सति दर्शनं भवति। तदनन्तरमर्थस्य ग्रहणमवग्रहः।
-सर्वार्थ० १-१५। २. पृ० ५५३ । ३. अ० १, आ.० १, सू० २६ । ४. परि० २, सू० ७।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org