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________________ प्रमाणके भेद १४५ ग्राही माना है । तथा ज्ञानको साकार और विशेषग्राही माना है । पहले दर्शन होता है फिर ज्ञान होता है । किन्तु दिगम्बर परम्परा केवलज्ञानीके दर्शन और ज्ञान एक साथ मानती है । आचार्य पूज्यपाद कहते हैं कि विषय और विषयीका सन्निपात होनेपर दर्शन होता है । अकलंकदेव उसको स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि इन्द्रिय और अर्थका योग होनेपर सत्ता सामान्यका दर्शन होता है । अर्थात् वे दर्शनका विषय बतला देते हैं । यही सन्मात्र दर्शन अनन्तर समय में 'अर्थाकार - विकल्पधी : ' हो जाता है अर्थात् अर्थके आकारका निर्णायक हो जाता है वही अवग्रह है । दर्शन और अवग्रहके भेदको चर्चा करते हुए अकलंकदेव तत्त्वार्थवार्तिक में कहते हैं 'चक्षुके द्वारा 'कुछ है' इस प्रकारके निराकार अबलोकनको दर्शन कहते हैं। जैसे, तुरन्तके जन्मे हुए बालकको आँख खोलते ही जो प्रथम अवलोकन होता है. जिसमें वस्तु के विशेष धर्मो का भान नहीं होता, वह दर्शन है, वैसे ही सभीको पहले दर्शन होता है । उसके पश्चात् दो तीन समय तक आँखें टिमटिमाने पर 'यह रूप है' इस प्रकार विशेषताको लिये हुए अवग्रह होता है । आँखें खोलते ही बाल शिशुको जो दर्शन होता है यदि वह अवग्रहका सजातीय होनेसे ज्ञान है तो वह मिथ्या ज्ञान है अथवा सम्यग्ज्ञान है ? यदि मिथ्याज्ञान है तो वह संशय है ? विपर्यय है ? अथवा अनध्यवसाय है ? वह संशय या विपर्यय ज्ञान तो हो नहीं सकता; क्योंकि बच्चे की चेष्टाएँ सम्यग्ज्ञानमूलक देखी जाती हैं । तथा प्रथमही प्रथम संशय और विपर्यय हो भी नहीं सकते । जब कोई सीप और चाँदीको देख लेता है उसके पश्चात् ही उसे सामने पड़ी हुई वस्तु में सीप ओर चाँदीका भ्रम होता है । तथा वह अनध्यवसाय भी नहीं है; क्योंकि उसे वस्तु मात्रका दर्शन हो रहा है । अतः बच्चेका प्राथमिक अवलोकन मिथ्याज्ञान तो नहीं है । और न सम्यग्ज्ञान ही है क्योंकि उसमें वस्तुके आकारका बोध नहीं है । अतः यह मानना पड़ता है कि अवग्रहसे पहले दर्शन होता है ।' इस तरह अकलंक देवने अवग्रह और दर्शन में भेद सिद्ध करते हुए 'कुछ है' इस प्रकार के वस्तु मात्रके ग्राहीको दर्शन और 'वह रूप है' इस प्रकार वस्तुविशेष ग्राहीको अवग्रह ज्ञान कहा है । १. सर्वार्थ० ११५ । २. 'अक्षार्थयोगे सत्तालोकोऽर्थाकारविकल्पधीः ।' लघीयस्त्रय, का० ५ ३. तत्त्वार्थवार्तिक, पृ० ४३-४४ । १९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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