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प्रमाणके भेद
का ग्रहण नहीं होता जो व्यावहारिक अर्थावग्रहको मानते हो ?
उत्तर --- हाँ, मुख्य रूपसे व्यावहारिक अर्थावग्रहमें ही उक्त विशेषण बनते हैं किन्तु कारण में कार्यका उपचार करनेसे नैश्चयिक अर्थावग्रह में भी बन जाते हैं ।
श्वेताम्बराचार्य जिनभद्र गणि क्षमाश्रमणके विशेषावश्यक भाष्य तथा आचार्य मलयगिरि कृत उसके व्याख्यानके आधारपर यह लम्बी चर्चा ऊपर की गयी है उसका सारांश इस प्रकार हैं
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१. इन्द्रिय और अर्थके सम्बन्ध होनेको व्यंजनावग्रह कहते हैं । इसका काल असंख्यात समय है | व्यंजनावग्रह ज्ञान रूप नहीं है । किन्तु व्यंजनावग्रहके अन्तिम क्षण में व्यंजनावग्रह हो अर्थावग्रह रूप हो जाता है और अर्थावग्रह ज्ञानरूप है, अतः ज्ञानका कारण होनेसे व्यंजनावग्रह को भी ज्ञानरूप मान लिया जाता है; क्योंकि यदि व्यंजनावग्रहके कालमें कुछ भी ज्ञानांश न हो तो वह अर्थावग्रह रूप परिणमन नहीं कर सकता ।
२. अर्थावग्रहका काल एक समय है । वह सामान्य विशेषात्मक वस्तु में से केवल सामान्यरूप वस्तुको ग्रहण करता है । वह सामान्य रूप वस्तु अनिर्देश्य होती है । अर्थात् अर्थावग्रह विषयको किसी आकार, नाम, जाति आदिके द्वारा कहा नहीं जा सकता । शास्त्रकारोंने जो अर्थावग्रहके विषयका उदाहरण 'शब्द' दिया है सो समझाने के लिए दिया है क्योंकि 'यह शब्द है' यह ज्ञान निश्चयरूप है; क्योंकि रूप आदिको व्यावृत्ति करके शब्दका निश्चय करता है । किन्तु अर्थावग्रह में इतरव्यावृत्ति सम्भव नहीं है; क्योंकि उसका काल एक समय है तथा इसीसे वह निश्चय रूप नहीं है, निश्चय रूप ज्ञान तो केवल अवाय है ।
३. शास्त्रकारोंने जो बहु बहुविध आदि रूपसे अवग्रहके बारह भेद किये हैं सो बहु, आदि विशेषणों का ग्रहण वास्तविक अर्थावग्रहमें तो उपचारसे ही सम्भव है । हां, औपचारिक अर्थावग्रहमें होता है । अत: अर्थावग्रह भी दो प्रकारका है एक असली और एक नकली । असली अर्थावग्रह तो वही है जो सबसे प्रथम होता है । उस असली अर्थावग्रहके पश्चात् ईहा और फिर अत्राय होता है । इस अवायके द्वारा कतिपय विशेषका निर्णय होता है और उत्तरोत्तर विशेषका निर्णय करनेके लिए ईहाके बाद अपाय और अपायके बाद ईहाका क्रम तबतक चलता रहता है जबतक ज्ञाताको जिज्ञासा शान्त न हो । अतः इस ज्ञानधारामें पहले-पहलेका अपाय ज्ञान अपने उत्तर अपाय ज्ञानकी अपेक्षा सामान्यग्राही होनेसे औपचारिक अर्थावग्रह कहा जाता है ।
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