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________________ प्रमाणके भेद का ग्रहण नहीं होता जो व्यावहारिक अर्थावग्रहको मानते हो ? उत्तर --- हाँ, मुख्य रूपसे व्यावहारिक अर्थावग्रहमें ही उक्त विशेषण बनते हैं किन्तु कारण में कार्यका उपचार करनेसे नैश्चयिक अर्थावग्रह में भी बन जाते हैं । श्वेताम्बराचार्य जिनभद्र गणि क्षमाश्रमणके विशेषावश्यक भाष्य तथा आचार्य मलयगिरि कृत उसके व्याख्यानके आधारपर यह लम्बी चर्चा ऊपर की गयी है उसका सारांश इस प्रकार हैं १४३ १. इन्द्रिय और अर्थके सम्बन्ध होनेको व्यंजनावग्रह कहते हैं । इसका काल असंख्यात समय है | व्यंजनावग्रह ज्ञान रूप नहीं है । किन्तु व्यंजनावग्रहके अन्तिम क्षण में व्यंजनावग्रह हो अर्थावग्रह रूप हो जाता है और अर्थावग्रह ज्ञानरूप है, अतः ज्ञानका कारण होनेसे व्यंजनावग्रह को भी ज्ञानरूप मान लिया जाता है; क्योंकि यदि व्यंजनावग्रहके कालमें कुछ भी ज्ञानांश न हो तो वह अर्थावग्रह रूप परिणमन नहीं कर सकता । २. अर्थावग्रहका काल एक समय है । वह सामान्य विशेषात्मक वस्तु में से केवल सामान्यरूप वस्तुको ग्रहण करता है । वह सामान्य रूप वस्तु अनिर्देश्य होती है । अर्थात् अर्थावग्रह विषयको किसी आकार, नाम, जाति आदिके द्वारा कहा नहीं जा सकता । शास्त्रकारोंने जो अर्थावग्रहके विषयका उदाहरण 'शब्द' दिया है सो समझाने के लिए दिया है क्योंकि 'यह शब्द है' यह ज्ञान निश्चयरूप है; क्योंकि रूप आदिको व्यावृत्ति करके शब्दका निश्चय करता है । किन्तु अर्थावग्रह में इतरव्यावृत्ति सम्भव नहीं है; क्योंकि उसका काल एक समय है तथा इसीसे वह निश्चय रूप नहीं है, निश्चय रूप ज्ञान तो केवल अवाय है । ३. शास्त्रकारोंने जो बहु बहुविध आदि रूपसे अवग्रहके बारह भेद किये हैं सो बहु, आदि विशेषणों का ग्रहण वास्तविक अर्थावग्रहमें तो उपचारसे ही सम्भव है । हां, औपचारिक अर्थावग्रहमें होता है । अत: अर्थावग्रह भी दो प्रकारका है एक असली और एक नकली । असली अर्थावग्रह तो वही है जो सबसे प्रथम होता है । उस असली अर्थावग्रहके पश्चात् ईहा और फिर अत्राय होता है । इस अवायके द्वारा कतिपय विशेषका निर्णय होता है और उत्तरोत्तर विशेषका निर्णय करनेके लिए ईहाके बाद अपाय और अपायके बाद ईहाका क्रम तबतक चलता रहता है जबतक ज्ञाताको जिज्ञासा शान्त न हो । अतः इस ज्ञानधारामें पहले-पहलेका अपाय ज्ञान अपने उत्तर अपाय ज्ञानकी अपेक्षा सामान्यग्राही होनेसे औपचारिक अर्थावग्रह कहा जाता है । • Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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