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जैन न्याय
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सामान्य ग्राही है वह अर्थावग्रह है जैसे प्रथम निरुपचरित अर्थावग्रह | 'यह शब्द ही है' इस अपाय ज्ञानके पश्चात् भी ईहा और अपाय ज्ञान होते हैं तथा 'यह शब्द शंखका ही है' इस आगामी विशेष ज्ञानकी अपेक्षा यह सामान्यग्राही भी है । अतः उसे उपचारसे अर्थावग्रह कहते हैं । इस दूसरे अपाय ज्ञानके पश्चात् भी यदि ज्ञाताको और भी विशेषताएँ जाननेकी आकांक्षा हो तो आगे होनेवाली हा और अपायकी अपेक्षा से तथा भावी विशेष ज्ञानकी अपेक्षा सामान्यग्राही होने से वह दूसरा अपाय भी उपचारसे अर्थावग्रह होता है । इस तरह जबतक प्रमाताकी उत्तरोत्तर विशेषकी जिज्ञासा शान्त नहीं होती तब तक व्यावहारिक अर्थावग्रह ईहा और अपायकी परम्परा चलती रहती है ।
सारांश यह है कि विषयको जाननेके लिए जब तक उसके अन्तिम विशेषका ज्ञान न हो जाये तबतक सर्वत्र ईहा और अपाय ज्ञान ही होते हैं, अर्थावग्रह नहीं होता । अर्थावग्रह तो केवल एक बार प्रारम्भमें एक समय के लिए ही होता है । किन्तु व्यवहार के लिए पहले-पहलेका अपाय ज्ञान उत्तरोत्तर होनेवाले ईहा और अपायको अपेक्षा उपचारसे अर्थावग्रह कहा जाता है। इस औपचारिक अथवा व्यावहारिक अर्थावग्रहको मान लेनेपर पहले दिये हुए दोषोंका परिहार हो जाता है । तथा लोक में जो सामान्यय विशेषका आपेक्षिक व्यवहार प्रचलित है वह भी औपचारिक अवग्रहके होनेपर ही बनता है । लोकमें जो विशेष है वही अपेक्षासे सामान्य कहा जाता है और सामान्य हैं वही अपेक्षासे विशेष कहलाता है । जैसे, 'यह शब्द ही है' इस प्रकारसे जाना गया अर्थ पूर्व सामान्यकी अपेक्षा विशेष है । और 'यह शब्द शंखका ही है' इस उत्तर विशेषकी अपेक्षा सामान्य है । सन्तान रूपसे प्रचलित यह सामान्य विशेषका व्यवहार औपचारिक अवग्रहके होनेपर ही बनता है, क्योंकि यदि औपचारिक अवग्रह नहीं माना जायेगा तो प्रथम अपाय ज्ञानके पश्चात् ईहा ज्ञान नहीं होगा । और ईहा ज्ञानके न होनेसे उत्तरोत्तर विशेषका ज्ञान नहीं होगा। उत्तरोत्तर विशेषका ज्ञान न होनेसे प्रथम अपाय ज्ञान के द्वारा निश्चित अर्थ विशेषरूप ही रहेगा, सामान्यरूप नहीं ठहरेगा । अतः पूर्वोक्त लोकप्रसिद्ध सामान्य विशेषका व्यवहार नष्ट हो जायेगा। अतः प्रथम अपाय ज्ञानके पश्चात् ईहा ज्ञान मानना ही होगा । और ईहाके पश्चात् पुनः अपाय ज्ञान होगा । उस अपायकी अपेक्षा प्रथम अपायसे निर्णीत अर्थ सामान्य रूप ठहरेगा और जो उक्त सामान्यको ग्रहण करता है वह अर्थावग्रह है । अतः अर्थावग्रह दो प्रकारका होता है - एक नैश्चयिक अर्थावग्रह और एक व्यावहारिक अर्थावग्रह् ।
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शंका- क्या नैश्चयिक अर्थावग्रहमें चिर, क्षित्र, बहु, बहुविध आदि विशेषणों
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