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________________ प्रमाणके भेद १४१ विशेषणोंका ग्रहण नहीं हो सकता। अत: अर्थावग्रहका काल असंख्यात समय भी होना चाहिए। तथा शंख भेरी आदि बहुत-से वादित्रोंको सुनकर क्षयोपशमकी विचित्रताके कारण कोई श्रोता तो केवल शब्द मात्रको ग्रहण करता है, कोई बहुत. से शब्दोंको ग्रहण करता है, और कोई उनके अनेक भेद-प्रभेदोंको ग्रहण करता है। अतः अर्थावग्रहमें कहीं सामान्य ग्रहण और कहीं विशेष ग्रहण भी होता है यह सिद्ध है। उत्तर-बह, बहुविध आदि विशेष धर्मोंका जो निश्चयात्मक ज्ञान है वह सामान्य अर्थके ग्रहण बिना, तथा ईहाके बिना नहीं हो सकता; क्योंकि वह तो अपाय रूप है तब ऐसा निश्चायक ज्ञान अर्थावग्रहमें कैसे हो सकता है ? यह बात हम कई बार कह चुके हैं। शंका-यदि बहु, बहुविध वगैरहका ग्राहक ज्ञान अपाय ही है तो सिद्धान्तमें अवग्रह आदिको भी बहु आदिका ग्राहक क्यों कहा है ? उत्तर-अवग्रह आदि अपाय ज्ञानके कारण हैं और कारणमें कार्यका स्वरूप योग्यताकी अपेक्षा रहता है । इसलिए उपचारसे अवग्रह आदिको भी बहु आदिका ग्राहक कहा है । अत: कोई दोष नहीं है। शंका-यदि आप इस तरहसे उपवार करते हैं तो हम भी अपायसे होने वाले विशेष ज्ञानका उपचार अर्थावग्रहमें कर सकते है। उत्तर-यदि आप अपायगत विशेष ज्ञानका उपचार अर्थावग्रहमें करते हैं तो वह उपचार जिस प्रकारसे किया जा सकता है उस प्रकारको समझ लीजिए। सबसे प्रथम जो अर्थावग्रह होता है, वह निरुप चरित अर्थावग्रह है। उसका काल एक समय है तथा वह सामान्य मात्रका ग्राहक है। उस निरुपचरित अर्थावग्रहके बाद ईहित वस्तुविशेषका जो अपायज्ञान होता है वह अपाय आगे होनेवाली ईहा और अपायकी अपेक्षा उपचरित अर्थावग्रह है। आशय यह है-प्रथम नैश्चयिक ( निरुपचरित ) अर्थावग्रहमें रूप आदिसे अव्यावृत्त अव्यक्त शब्दादि रूप सामान्य वस्तुका ग्रहण होता है । उसमें ईहाज्ञान होनेपर यह शब्द हो है' इत्यादि निश्चयरूप अपाय ज्ञान होता है । इसके बाद यह शब्द शंखका है अथवा सिंगेका है' इस प्रकार पुनः ईहा होती है। उसके फलस्वरूप 'यह शब्द शंखका ही है। यह निश्चयात्मक अपाय ज्ञान होता है। इस दूसरे अपाय ज्ञानकी अपेक्षा 'यह शब्द हो है' यह पहला निश्चय ज्ञान अपाय होते हुए भी उपचारसे अर्थावग्रह कहा जाता है। अर्थात् जिसके पश्चात् भी ईहा और अपाय ज्ञान होते हैं तथा जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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