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जैन न्याय
ज्ञान हो जाता है ।
उत्तर - यदि विषयसे परिचित व्यक्तिको अर्थावग्रहके कालमें अव्यक्त शब्दज्ञानके स्थान में व्यक्त शब्द- ज्ञानका होना माना जायेगा तो जो व्यक्ति विषयसे और भी अधिक परिचित है उसको उसी कालमें व्यक्त शब्दज्ञानके स्थान में 'यह शब्द शंखका है' इत्यादि रूप और भी अधिक विशिष्ट ज्ञान होनेका प्रसंग उपस्थित होगा ।
शंका- किसी-किसी व्यक्तिको प्रथम समय में ही बहुविशेषयुक्त ज्ञान होता ही है ।
उत्तर - तब तो सभी मतिज्ञान अवग्रह रूप ही हो जायेंगे । अथवा सभी मतिज्ञान अपाय रूप ही हो जायेंगे; क्योंकि अर्थावग्रहमें निश्चय रूप विशेष ज्ञान का होना आप स्वीकार करते हैं और निश्चय ज्ञान अपाय है । अन्य भी अनेक दोष उपस्थित होंगे और अवग्रह, ईहा, अवाय तथा धारणाका क्रम भी नहीं बनेगा | अतः अर्थावग्रहके कालमें अव्यक्त ज्ञान ही मानना चाहिए ।
शंका - कोई-कोई वादी आलोचना ज्ञानपूर्वक अवग्रह ज्ञानका होना मानते हैं । सामान्य वस्तुका ग्राही ज्ञान आलोचना ज्ञान है । उसके बाद शब्दका अवग्रह होता है । इसमें आपको क्या आपत्ति है ?
उत्तर- -यह सामान्यग्राही आलोचना ज्ञान व्यंजनावग्रह से पहले होता है, या पीछे होता है अथवा वह व्यंजनावग्रह रूप ही है ? पहले तो हो नहीं सकता; क्योंकि अर्थका और इन्द्रियका सम्बन्ध होनेपर ही सामान्य अर्थका ग्रहण हो सकता है, किन्तु व्यंजनावग्रहसे पहले उन दोनोंका सम्बन्ध नहीं होता । यदि हो तो वही व्यंजनावग्रह है । तथा व्यंजनावग्रहके अन्तिम क्षण में अर्थावग्रह ही हो जाता है । अतः आलोचना ज्ञान व्यंजनावग्रहके पश्चात् भी नहीं हो सकता । पारिशेष्य से यही निष्कर्ष निकलता है कि वह वादी व्यंजनावग्रहको ही आलोचना ज्ञान रूपसे मानते हैं । किन्तु यदि आलोचना ज्ञान में सामान्य अर्थका दर्शन होता है तो वह व्यंजनावग्रह नहीं हो सकता; क्योंकि व्यंजनावग्रहमें अर्थका ग्रहण नहीं होता । अतः अर्थावग्रह ही सामान्य अर्थका ग्राहक है । इससे भिन्न आलोचना ज्ञान कोई नहीं है ।
शंका - जैन सिद्धान्त में क्षित्र अवग्रह, चिर अवग्रह, बहु अवग्रह, बहुविध अवग्रह आदि बारह भेद अवग्रहके कहे हैं । इन भेदोंसे प्रकट होता है कि अर्थावग्रहका काल एक समय मात्र नहीं है, क्योंकि एक समय में क्षिप्र, चिर आदि
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