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________________ प्रमाणके भेद वस्तुका ग्रहण होनेपर ही व्यंजनावग्रह होता है। मन मनोद्रव्योंको ग्राह्य (विषय) रूपसे ग्रहण नहीं करता किन्तु करणरूपसे ग्रहण करता है। मनका ग्राह्य ( विषय ) तो सुमेरु आदि पदार्थ हैं। अतः पूर्वोक्त कथन असम्बद्ध ही है। तथा जब मन अपने शरीर, हृदय आदिका विचार करता है तब यदि प्रथम क्षणमें ही अर्थावग्रह न हो जाता तो व्यंजनावग्रह हो सकता था किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि मनसे प्रथम समयमें हो अर्थावग्रह उत्पन्न होता है। श्रोत्र आदि इन्द्रियोंमें तो क्षयोपशम की पटुता न होनेसे प्रथम व्यंजनावग्रहका होना उचित है किन्तु मनका क्षयोपशम पटु होनेसे चक्षु इन्द्रियकी तरह प्रथम ही अर्थावग्रह हो जाता है । अतः मनसे व्यंजनावग्रह नहीं होता। शंका-जब कोई मनुष्य केवल मनसे पदार्थोंका चिन्तन करता है उस समय भले ही व्यंजनावग्रह न हो । किन्तु जब श्रोत्र आदि इन्द्रियसे वह पदार्थोको जानता है तो उस समय मनका व्यापार होनेसे मनसे व्यंजनावग्रह क्यों नहीं मानते, क्योंकि उस समय को आपने भी अनुपलब्धि काल माना है ? उत्तर-यद्यपि श्रोत्र आदि इन्द्रियोंके उपयोग काल में भी मनका व्यापार होता है किन्तु व्यंजनावग्रहके कालमें मनका व्यापार नहीं होता, व्यंजनावग्रहके अनन्तर होने वाले अर्थावग्रहसे ही मनका व्यापार होता है। क्योंकि व्यंजनावग्रहमें अर्थका बोध नहीं होता, वह तो अर्थबोधका कारण है। किन्तु मन तो अर्थबोध रूप ही है। यदि व्यंजनावग्रहके समय मनका व्यापार माना जायेगा तो मनसे भी व्यंजनावग्रह होनेसे मतिज्ञानके भेदोंकी संख्यामें ही गड़बड़ी पैदा हो जायेगी। ___ अतः चक्षु और मनसे व्यंजनावग्रह न होनेके कारण व्यंजनावग्रहके चार ही भेद हैं। व्यंजनावग्रहका विषय ऊपर बतलाया है कि अर्थावग्रह रूप ज्ञानका कारण होनेसे वह ज्ञानरूप है किन्तु अव्यक्त है । अब अर्थावग्रहका विषय बतलाते हैं । अर्थावग्रह का विषय यद्यपि सामान्य-विशेषात्मक वस्तु है किन्तु अर्थावग्रह उसमें से सामान्य रूप वस्तुको ही ग्रहण करता है, विशेष रूप वस्तुको ग्रहण नहीं करता; क्योंकि अर्थावग्रहका काल एक समय है और एक समयमें विशेषका ग्रहण नहीं हो सकता । तथा वह सामान्य रूप वस्तु अनिर्देश्य होती है क्योंकि अर्थावग्रह स्वरूप, नाम, जाति आदिकी कल्पनासे रहित अर्थको विषय करता है। शंका-यदि स्वरूप नाम आदिकी कल्पनासे रहित अर्थ अर्थावग्रहका विषय १. विशे० भा०, गा० २५२ । १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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