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________________ १३६ जैन न्याय व्यंजनावग्रहको ज्ञानरूप नहीं माना जाता तो अन्तिम समयमें उसमें अर्थावग्रह रूप ज्ञानको उत्पन्न करनेकी सामर्थ्य आप कैसे मान सकते हैं ? अर्थात् यदि शब्दादि विषयोंका श्रोत्र आदि इन्द्रियोंके साथ सम्बन्ध होने पर प्रथम समयसे लेकर प्रति समय प्रकट होनेवाली ज्ञानकी जरा-सी भी मात्रा आप स्वीकार नहीं करते तो अन्तिम क्षणमें भी उससे कोई ज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता। और ऐसा होने पर अर्थावग्रह आदि ज्ञान भी उत्पन्न नहीं हो सकेंगे। "अतः अर्थावग्रहके उत्पन्न होनेसे पहले जो अत्यन्त अस्पष्ट ज्ञान रहता है उसे हो व्यं जनावग्रह कहते हैं । अन्तिम समयमें वही ज्ञान कुछ स्पष्ट होनेपर अर्थावग्रह कहा जाता है । इसलिए यद्यपि व्यंजनावग्रह कालमें स्पष्ट रूपसे ज्ञानका साधक कोई लिंग नहीं है फिर भी उक्त युक्तिके आधारपर व्यं जनावग्रहमें ज्ञानको सिद्धि होती है । उस व्यंजनावग्रहके चार भेद है; क्योंकि इन्द्रिय और विषयका जो परस्पर में सम्बन्ध है वही व्यंजनावग्रह है । और वह सम्बन्ध स्पर्शन, रसन, घ्राण और श्रोत्र इन चार प्राप्यकारी इन्द्रियों में ही होता है, चक्षु और मनमें नहीं होता। अत: इन दोनोंको छोड़कर शेष चार इन्द्रियोंके भेदसे व्यंजनावग्रह चार ही प्रकारका होता है। शंका-यह माना कि मन शरीरसे निकलकर विषयके पास नहीं जाता। फिर भी मनसे व्यंजनावग्रह हो सकता है; क्योंकि सिद्धान्तमें छद्मस्थका उपयोग असंख्यात समय तक बतलाया है। अत: उपयोगसम्बन्धी असंख्यात समयोंमें जोव मनोवर्गणाके द्वारा अनन्त मनोद्रव्योंको ग्रहण करता है। और पहले आपने द्रव्योंको और उनके सम्बन्धको व्यंजन बतलाया है। अतः जैसे श्रोत्र-आदि इन्द्रियोंके द्वारा असंख्यात समय तक ग्रहण किये जानेवाले शब्दादि और उनका सम्बन्ध व्यंजनावग्रह है वैसे ही यहाँ भी असंख्यात समय तक ग्रहण किये जाने वाले मनोद्रव्य और उनका सम्बन्ध क्यों व्यंजनावग्रह नहीं है ? इसके सिवाय मन स्वस्थानमें रहते हुए ही जब अपने शरीरका अथवा हृदयका विचार करता है तो इनके साथ तो मनका अत्यन्त सान्निव्य है अतः उसे समय भी पूर्वोक्त प्रकारसे व्यं जनावग्रहका होना सम्भव है । फिर आप कैसे कहते हैं कि मनसे व्यंजनावग्रह नहीं होता ? उत्तर-श्रोत्र आदि चार इन्द्रियोंके द्वारा ग्राह्य जो शब्दादि विषय हैं उन विषयरूप परिणत द्रव्योंके ग्रहण करनेको हम व्यंजनावग्रह मानते हैं । किन्तु मन ग्राह्य नहीं है, बल्कि अर्थके जानने में कारण है अर्थात् मनके द्वारा शब्दादि विषयोंको ग्रहण किया जाता है। ऐसी स्थितिमें व्यंजनावग्रह कैसे सम्भव है ? ग्राह्य १. विशे० भा०. गा० २३७ से। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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