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________________ १३४ जैन न्याय बतलाया है। अतः आगमसे भी इन इन्द्रियोंका अप्राप्त अर्थको ग्रहण करना सिद्ध है।' सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिकमें स्पष्ट ग्रहणको अर्थावग्रह और अस्पष्ट ग्रहणको अर्थावग्रह लिखा है। किन्तु धवेलामें वीरसेन स्वामीने उसका निषेध करते हए लिखा है कि ऐसा माननेसे चासे भी व्यंजनावग्रहका प्रसंग आता है क्योंकि चक्षसे भी अस्पष्ट ग्रहण देखा जाता है। किन्तु आगममें चक्ष और मनसे व्यंजनावग्रह होनेका निषेध है । धवलामें ही अन्यत्र ( पु० ९, पृ० १४४-१४५ ) यह शंका उठायी है कि अवग्रह निर्णयरूप है या अनिर्णयरूप है ? यदि वह निर्णय रूप है तो अवायमें उसका अन्तर्भाव होना चाहिए। और यदि वह अनिर्णय रूप है तो वह प्रमाण नहीं हो सकता। इस शंकाका समाधान करते हुए वोरसेन स्वामीने अवग्रहके दो प्रकार वतलाये हैं.-एक विशदावग्रह और दूसरा अविशदावग्रह । उनमें से विशद अवग्रह निर्णय रूप है और वह ईहा, अवाय और धारणा ज्ञानको उत्पत्ति में कारण है। किन्तु निर्णय रूप होते हुए भी उसका अन्तर्भाव अभावमें नहीं हो सकता: क्योंकि ईहा ज्ञान के पश्चात् जो निर्णयात्मक ज्ञान होता है उसे अयाय कहते हैं। और भाषा, आयु, रूप आदि विशेषोंको ग्रहण न करके पुरुषमात्रको ग्रहण करनेवाले ज्ञानको अविशदावग्रह कहते हैं। व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रहके सम्बन्धमें श्वेताम्बरीय आगममान्यता भिन्न है। आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने अपने विशेषावश्यकभाष्य में ( गा० १९४ से ) बहुत ही गम्भीरता और विस्तारसे उसका विचार किया है। अतः उसे भो यहाँ दिया जाता है। श्वे० आगमिक मान्यता जैसे दीपकसे घट प्रकट किया जाता है वैसे ही जिसके द्वारा अर्थ प्रकट १. 'अर्थावग्रव्यञ्जनावग्रहयोव्यंक्ताव्यक्तकृतो विशेषः ।..... व्यक्तग्रहणात् प्राग व्यञ्जनावग्रहः। व्यक्तग्रहणमर्थावग्रहः । सर्वार्थसि० १-१८ । २. 'कोऽर्थावग्रहः ? अप्राप्तार्थग्रहणमर्थावग्रहः। को व्यञ्जनावग्रहः ? प्राप्तार्थग्रहणं व्यञ्जनावग्रहः। न स्पष्टग्रहणमर्थावग्रहः, अस्पष्टग्रहणस्य व्यञ्जनावग्रहत्वप्रसंगात् । भवतु चेत् , न, चक्षुष्यप्यस्पष्टग्रहणदर्शनतो व्यञ्जनावग्रहस्य सत्त्वप्रसंगात् । पु० १३, पृ० २२० । ३. विशे० भा०, गा० १६४ से । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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