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प्रमाणके भेद
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कहते हैं । आचार्य 'पूज्यपादने एक दष्टान्तके द्वारा दोनोंका भेद स्पष्ट करते हुए लिखा है कि- जैसे मिट्टी के नये सकोरेपर जलके दो-चार छींटे देने से वह गीला नहीं होता । किन्तु बार-बार पानीके छींटे देते रहनेपर वह कोरा सकोरा धीरेधीरे गीला हो जाता है । इसी प्रकार श्रोत्र आदि इन्द्रियोंमें आया हुआ शब्द अथवा गन्ध आदि दो तीन क्षण तक स्पष्ट नहीं होते । किन्तु बार-बार ग्रहण करनेपर स्पष्ट हो जाते हैं । अतः स्पष्ट ग्रहणसे पहले व्यंजनावग्रह होता है पीछे अर्थावग्रह होता है । किन्तु ऐसा कोई नियम नहीं है कि जैसे अवग्रह ज्ञान दर्शनपूर्वक ही होता है वैसे ही अर्थावग्रह भी व्यंजनावग्रहपूर्वक ही हो, क्योंकि अर्थावग्रह तो पाँचों इन्द्रियोंसे और मनसे होता है किन्तु व्यंजनावग्रह चक्षु और मनके सिवा शेष चार ही इन्द्रियोंसे होता है । आशय यह है कि जो इन्द्रियाँ अपने विषयको उससे भिड़कर जानती हैं उन्हींसे व्यंजनावग्रह होता है । ऐसी इन्द्रियाँ केवल चार हैं - स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र । ये चारों इन्द्रियाँ अपने विषय से सम्बद्ध होनेपर ही स्पर्श, रस, गन्ध और शब्दको जानती हैं । किन्तु चक्षु और मन अपने विषयसे दूर रहकर ही उसे जानते हैं। तभी तो जो वस्तु आँख के अत्यन्त नजदीक होती है उसे वह नहीं जानती जैसे आँखमें लगा हुआ अंजन | इसीसे जैन दर्शन में चक्षुको अप्राप्यकारी माना है । चक्षुके प्राप्यकारित्वंकी आलोचना प्रारम्भमें कर आये हैं । अतः यहाँ उसकी चर्चा करना अनावश्यक है ।
षट्खण्डागमके वर्गणा खण्डकी धवला टीका में ( पु० १३, पृ० २२० ) अवग्रहका कथन थोड़ा प्रकारान्तरसे हैं जो इस प्रकार है - 'अवग्रहके दो भेद हैं—व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह । प्राप्त अर्थके प्रथम ग्रहणको व्यंजनावग्रह और अप्राप्त अर्थ ग्रहणको अर्थावग्रह कहते हैं । जो पदार्थ इन्द्रियसे सम्बद्ध होकर जाना जाता है वह प्राप्त अर्थ है । और जो पदार्थ इन्द्रियसे सम्बद्ध न होकर जाना जाता है वह अप्राप्त अर्थ है । चक्षु और मन अप्राप्त अर्थको ही जानते हैं । शेष चार इन्द्रियाँ प्राप्त और अप्राप्त दोनों प्रकारके पदार्थोंको जान सकती हैं । स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन्द्रियाँ प्राप्त अर्थको जानती हैं यह तो स्पष्ट ही है । पर युक्ति से उनके द्वारा अप्राप्त अर्थका जानना भी सिद्ध है । पृथिवीमें जिस ओर निधि पायी जाती है, वनस्पतिकायिक जीवोंका उस ओर प्रारोहको छोड़ना देखा जाता है । तथा आगम में स्पर्शन - इन्द्रियका विषय क्षेत्र चार सौ धनुष, रसनाका विषय क्षेत्र चौसठ धनुष और घ्राण इन्द्रियका विषय सो धनुष
१. सर्वा० सि०, सूत्र १ - १८ की व्याख्या ।
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