________________
१३२
जैन न्याय
है वह परोक्ष है। और परकी सहायता बिना केवल आत्माके द्वारा जो पदार्थों का ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष है।' अब प्रश्न होता है कि वह 'पर' कौन है ? कुन्दकुन्द कहते हैं-'इन्द्रियाँ परद्रव्य है क्योंकि वे स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्दको विषय करती हैं और ये सब जड़ हैं । अतः द्रव्येन्द्रियाँ जड़स्वरूप हैं, जब कि आत्मा चैतन्य स्वरूप है । इसलिए 'पर' इन्द्रियोंके द्वारा जाना हुआ पदार्थ प्रत्यक्ष नहीं हो सकता वह तो परोक्ष ही है। ___ आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं-'पर' अर्थात् इन्द्रियाँ, मन, प्रकाश, उपदेश आदि बाह्य निमित्तोंकी अपेक्षा लेकर उत्पन्न होनेवाले मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष हैं, क्योंकि सूत्रकारने इन्द्रिय और मनकी सहायतासे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानको मतिज्ञान कहा है और श्रुतज्ञानको मतिपूर्वक कहा है। अकलंकदेवने स्पष्ट ज्ञानको प्रत्यक्ष और अस्पष्ट ज्ञानको परोक्ष कहा है। चूंकि चक्षु आदि इन्द्रियोंके निमित्तसे होनेवाला ज्ञान एकदेशसे स्पष्ट होता है इसलिए वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है। आचार्य विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें स्त्रकार और अकलंकदेवके कथनकी एकरूपताको सुन्दर रूपसे घटित किया है और बतलाया है कि'अकलंकदेवके कथनसे सूत्रकारके कथन में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती; क्योंकि अकलंक देवने अक्ष-आत्मासे होनेवाले अतीन्द्रिय ज्ञानको ही मुख्य प्रत्यक्ष कहा है। इस दृष्टिमे इन्द्रिय और मनसे होनेवाला मतिज्ञान परापेक्ष होनेसे परोक्ष ही है। किन्तु उसमें कुछ स्पष्टता पायी जाती है और लोकव्यवहार में उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है इसलिए उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है ।' अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह
सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष अथवा मतिज्ञानके चार भेद हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । वस्तु के साथ इन्द्रियका सम्पर्क होनेके बाद जो अर्थका ज्ञान होता है उसे अवग्रह कहते हैं। आशय यह है कि चक्षु आदि इन्द्रियों और घटादि पदार्थों का सम्पर्क होते ही प्रथम दर्शन होता है। यह दर्शन सामान्यको ग्रहण करता है। पोछे वही दर्शन वस्तुके आकार आदिका निर्णय होनेपर अवग्रह ज्ञान रूप परिणत हो जाता है। अवग्रहके भो दो भेद हैं-एक व्यंजनावग्रह और एक अर्थावग्रह । अस्पष्ट ग्रहणको व्यंजनावग्रह कहते हैं और स्पष्ट ग्रहणको अर्थावग्रह
१. सर्वाथ०, पृ० १११ । २. लघीयस्त्रय, का०३। ३. पृ० १८२, का० १८१-१८३ । ४. न्या० कु. च०, पृ० ११६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org