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________________ प्रमाणके भेद १२९ कहलाता। शायद कहा जाये कि सामने स्थाणु है तो उस स्थाणुसे क्या पुरुष है अथवा यह पुरुष ही है इस प्रकार पुरुष अंशका निश्चय कैसे हो सकता है ? यदि स्याणमें न रहनेवाले पुरुष रूप अंशका भी उससे निश्चय हो जाता है तो इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होने वाले सत्य ज्ञान में भी अर्थको कारण माननेको कल्पना व्यर्थ ही है। अतः विशेष भी संशयादि ज्ञानका जनक नहीं है। और न सामान्य और विशेष दोनों ही संशयादि ज्ञानके जनक हैं क्योंकि ऐसा माननेपर दोनों पक्षोंमें जो दोष दिये गये हैं उन सब दोषोंका प्रसंग आता है। अतः जब संशयादि ज्ञान अर्थक अभावमें भी होते हैं तब अर्थके अभावमें ज्ञानके अभावको सिद्धि कैसे हो सकती है जिससे ज्ञानको अर्थका कार्य माना जाये । तथा, यदि ऐसा माना जाता है कि जो कारण होता है उसे ही ज्ञान जानता है तो योगिज्ञानसे पूर्वकालभावी पदार्थोंको ही योगिज्ञानं जान सकेगा क्योंकि वे ही उसके कारण हो सकते हैं, जो पदार्थ उसी समय उत्पन्न हो रहे हैं अथवा भविष्य में उत्पन्न होंगे उन्हें नहीं जान सकेगा क्योंकि वे उस योगिज्ञानके कारण नहीं हैं । जो आत्मलाभ कर लेता है वही किसीका कारण होता है, अन्य नहीं । यदि जिसने आत्मलाभ नहीं किया है उसे भी कारण माना जाता है तो खर. विषाण भी किसीका कारण हो जायेगा। वर्तमान और भावी पदार्थ ज्ञानके कारण नहीं होते हए भी यदि योगिज्ञानके द्वारा जाने जाते हैं तो हमारा ज्ञान भी ज्ञानके अकारणभूत अर्यों को जान सकता है। और यदि योगिज्ञानवर्तमान और भावी अर्थों को नहीं जानता तो वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता । तथा अर्थ यदि क्षणिक है तो ज्ञानके कालमें अर्थका अभाव होनेसे ज्ञान अर्थको कैसे जान सकता है। जो ज्ञानका कारण अर्थ होता है वही ज्ञानके द्वारा जाना जाता है, ऐसा माननेवाले वादी अर्थकी उत्पद्यमानताको कैसे जान सकते हैं ? अर्थकी उत्पद्यमानताको प्रतीति उत्पद्यमान अर्थके समकालभावी ज्ञानके द्वारा होती है, या पूर्वकालभावी ज्ञानके द्वारा होती है अथवा उत्तरकालभावी ज्ञानके द्वारा होती है ? समकालभावी ज्ञानके द्वारा तो हो नहीं सकती क्योंकि समकालभावी ज्ञान उत्पद्यमान अर्थका कार्य नहीं हैं। पूर्वकालभावी ज्ञानके द्वारा भी अर्थकी उत्पद्यमानताको प्रतीति नहीं हो सकती, क्योंकि उस कालमें अर्थको उत्पद्यमानताका अभाव है । और जिसका अभाव है उसे ज्ञान जान नहीं सकता क्योंकि वह उस ज्ञानका कारण नहीं है। उत्तरकालभावी ज्ञान भी अर्थकी उत्पद्यमानताको नहीं जान सकता क्योंकि उस कालम वह नष्ट हो जाती है। सारांश १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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