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जैन न्याय
यह है कि अर्थसे पूर्वकालभात्री ज्ञानके समयमें अर्थको उत्पद्यमानता नहीं है किन्तु उत्पत्स्यमानता है और उत्तरकालभावी ज्ञानके समयमें उत्पन्नता है, उत्पद्यमानता नहीं है ।
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जो ईश्वर के ज्ञानको नित्य मानते हैं, उनके मत से भी यही सिद्ध होता है कि ज्ञान अकारणभूत अर्थको जानता है । उसी तरह हमारा ज्ञान भी अकारणभूत अर्थको यदि जाने तो क्या हानि है ?
अतः ज्ञानका अर्थ के साथ अन्वयव्यतिरेक न होनेसे ज्ञान अर्थका कार्य सिद्ध नहीं होता ।
प्रकाशके ज्ञानकारणत्वकी समीक्षा
ज्ञान प्रकाशका भी कार्य नहीं है क्योंकि जिनकी आँखें अंजन वगैरह से संस्कृत होती हैं उन्हें तथा बिल्ली वगैरह के प्रकाशके अभाव में भी ज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है ।
शंका- यदि प्रकाश ज्ञानका कारण नहीं है तो हमें अन्धकारमें भी ज्ञान होना चाहिए किन्तु ऐसा नहीं होता । अतः प्रकाशके होनेपर ज्ञान होता है और प्रकाशके नहीं होनेपर ज्ञान नहीं होता । इसलिए ज्ञान प्रकाशका कार्य है। प्रकाश और ज्ञानमें अन्वयव्यतिरेक होनेपर भी कार्यकारण भाव नहीं माना जाता है तो धूम और आगमें भो कार्यकारण भावका व्यवस्थापक कोई दूसरा नहीं है ।
समाधान - यदि अन्धकार अवस्थामें ज्ञान नहीं होता तो अन्धकारका ज्ञान कैसे होता है ? यदि ज्ञानके बिना भी अन्धकारकी प्रतीति हो सकती हैं तो अन्य अर्थों की प्रतीति भी ज्ञानके बिना हो जायेगी । और ऐसी अवस्था में ज्ञानको कल्पना ही व्यर्थ हो जायेगी । अन्धकारकी प्रतीति भी हो ओर ज्ञान न हो यह तो स्ववचनविरोध है क्योंकि प्रतीतिका ही नाम ज्ञान है ।
पूर्वपक्ष - अन्धकार नामक कोई पदार्थ ही नहीं है जो ज्ञानका विषय हो । लोक में तो ज्ञानके उत्पन्न न होने को ही अन्धकार कहते हैं ।
उत्तर -- तब तो प्रकाशका भी अभाव हो जायेगा क्योंकि स्पष्ट ज्ञानके सिवाय प्रकाश अन्य कुछ नहीं है । लोकमें स्पष्ट ज्ञानको उत्पत्तिको ही प्रकाश कहते हैं । पूर्वपक्ष - प्रकाशके अभाव में ज्ञान में स्पष्टता कैसे आ सकती है ?
उत्तर--प्रकाशके अभाव में भी बिलाव वगैरहको रूपका और हम लोगों को रसादिका स्पष्ट ज्ञान होता है ।
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