SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाणके भेद १२७ उस प्रकारका ज्ञान नहीं माना। ज्ञानको जाननेवाला ज्ञान अर्थको भी जानता है अथवा अर्थको जाननेवाला ज्ञान ज्ञानको भी जानता है ऐसी आपकी मान्यता नहीं है। यदि इस प्रकारका ज्ञान आप मानते हैं तो आपको एक पांचवा प्रमाण मानना पड़ेगा। नैयायिक-'ज्ञान अर्थका कार्य है' यह हम अनुमानसे जानते हैं जो इस प्रकार है---ज्ञान अर्थ और प्रकाशका कार्य है क्योंकि उनके साथ ज्ञानका अन्वय और व्यतिरेक पाया जाता है। जिसका जिसके साथ अन्वय-व्यतिरेक पाया जाता है वह उसका कार्य होता है। जैसे अग्निका कार्य धूम है। ज्ञानका भी अर्थ और प्रकाशके साथ अन्वय-व्यतिरेक पाया जाता है। क्योंकि अर्थ और प्रकाशके होनेपर ही ज्ञान होता है और उनके नहीं होनेपर ज्ञान नहीं होता। किन्तु नैयायिकका उक्त कथन ठीक नहीं है। क्योंकि ज्ञानका अर्थ और प्रकाशके साथ अन्वय-व्यतिरेक नहीं है । इस विषयमें हम उभय-प्रसिद्ध दृष्टान्त उपस्थित करते हैं। जिस व्यक्तिकी आँखोंमें कामला रोग होता है उसको अर्थके अभावमें भी आकाशमें केश दिखाई देते हैं। अब प्रश्न यह है कि उस ज्ञानके होने में किसका हाथ है ? वे शोण्डुकका अथवा आँख की पलकोंका, अथवा पलकोंके बालोंका अथवा कामला वगैरहका ? पहला विकल्प तो ठीक नहीं है क्योंकि केशोण्डुकका ज्ञान केशोण्डुक रूप अर्थके होनेपर ही यदि होता हो तो उसे भ्रामक ज्ञान नहीं कहा जा सकता। यदि उस ज्ञानके होनेमें आँखकी पलकें कारण हैं तो पलकें ही दिखाई देनी चाहिए, तब उन पलकोंका आकाश में, आगे स्थित रूपसे और केशोण्डुकके आकार रूपसे प्रतिभास नहीं होना चाहिए। यदि कहा जाता है कि आँखोंकी पलकोंके बाल ही सामने आकाशमें केशोण्डुक रूपसे प्रतिभासित होते हैं तो जिस कामला रोगीकी आँखोंकी पलकोंमें बाल नहीं है, उसे आकाशमें केशोण्डुकका ज्ञान नहीं होना चाहिए । दूसरी बात यह है कि यदि केशोण्डुक ज्ञान में आँखोंके बालोंका हाथ है तो वे बाल आँखोंमें ही दिखाई देने चाहिए, आकाश में नहीं। स्थाणु (ठुठ ) के निमित्तसे होनेवाली पुरुषकी भ्रान्ति स्थाणुमें ही देखी जाती है, अन्यत्र नहीं। यदि भ्रान्ति के कारण आँखोंके बाल हो आकाशमें केशोण्डुक रूपसे केशोण्डुकका ज्ञान उत्पन्न करते हैं तो चक्ष और मनसे रूपज्ञानको उत्पत्ति माननेमें ही क्या हानि है । जैसे आँखके बालोंसे उत्पन्न हुआ ज्ञान केशोण्डुकको ग्रहण करता है वैसे ही अर्थसे भिन्न इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान अर्थको ग्रहण करता है। यदि कामल आदि रोग केशोण्डुक ज्ञानकी उत्पत्ति में कारण है और उनसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy