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________________ १२६ जैन न्याय भावाच्च केशोण्डुकज्ञानवन्नक्तञ्चरज्ञानवच्च ॥७॥'-परीक्षामुख २ परि० । अर्थ और प्रकाश ज्ञानमें कारण नहीं हैं क्योंकि वे ज्ञेय हैं, जैसे अन्धकार । अन्धकार ज्ञानका प्रतिबन्धक होनेसे ज्ञानका कारण नहीं है, फिर भी वह ज्ञानका विषय है। शंका-अर्थ और प्रकाश ज्ञेय होते हए भी यदि ज्ञानके कारण रहे आयें तो इसमें क्या आपत्ति है ? समाधान-यदि अर्थ और प्रकाशको ज्ञानका कारण माना जायेगा तो वे चक्षु आदिकी तरह ज्ञानके विषय (ज्ञेय) नहीं हो सकते।। तथा, ज्ञान अर्थका कार्य है, यह बात प्रत्यक्षसे प्रतीत होतो है या प्रमाणान्तरसे प्रतीत होती है । यदि प्रत्यक्षसे प्रतीत होती है तो उसी प्रत्यक्षसे प्रतीत होती है या प्रत्यक्षान्तरसे ? उसी प्रत्यक्षसे तो केवल अर्थका ही अनुभव होता है। यदि उसी प्रत्यक्षसे अर्थकी प्रतीति होने के साथ-ही-साथ 'यह अर्थ ज्ञानका कारण है। ऐसी भी प्रतीति होती तो उसमें कोई विवाद ही नहीं होना चाहिए था। क्योंकि प्रमाणसे ज्ञात वस्तुमें विवाद नहीं देखा जाता। कुम्भकार वगैरह घटके कारण हैं, इसमें कोई विवाद नहीं है। अतः वही प्रत्यक्ष तो इस बात को नहीं जानता कि में अर्थका कार्य हूँ। दूसरा प्रत्यक्ष भो नहीं जानता, उससे भी केवल पदार्थका ही प्रत्यक्ष होता है। यदि दूसरा प्रत्यक्ष यह जानता है कि ज्ञान अर्थका कार्य है तो प्रथम प्रत्यक्षके द्वारा इस बातको जानने में जो दोष ऊपर दिया गया है वही दोष यहाँ भी आता है। तथा द्वितीय प्रत्यक्ष ज्ञान ज्ञानान्तरको ग्रहण नहीं करता। शायद कहा जाये कि एक ही आत्मामें होनेवाला अनन्तर ज्ञान ( द्वितीय ज्ञान ) पूर्व अर्थज्ञानको ग्रहण करता है। किन्तु ऐसा माननेपर भी वह अनन्तर ज्ञान अर्थको नहीं जान सकता; क्योंकि दोनोंको ( अर्थ और ज्ञान ) विषय करनेवाला ज्ञान नहीं है अतः ज्ञान अर्थका कार्य है, यह वह नहीं जान सकता। यदि 'ज्ञान अर्थका कार्य है' यह बात प्रमाणान्तरसे जानी जाती है तो वह प्रमाणान्तर ज्ञानको विषय करता है, या अर्थको विषय करता है अथवा ज्ञान और अर्थ दोनोंको विषय करता है ? आदिके दो विकल्पोंमें तो वह प्रमाणान्तर चकि एक हो अर्थ या ज्ञानको विषय करता है अतः वह नहीं जान सकता कि अर्थ और ज्ञान में कार्यकारण भाव है। जैसे कुम्भकार और घटमें-से किसी एकको ग्रहण करनेवाला ज्ञान कुम्भकार और घटमें वर्तमान कार्यकारणभावको नहीं जानता । ज्ञान और अर्थ--दोनोंको जाननेवाले ज्ञानसे भी 'ज्ञान अर्थका कार्य है' ऐसी प्रतीति नहीं हो सकती; क्योंकि आपने ( नैयायिकने ) हमारे-जैसे अल्पज्ञोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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