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जैन न्याय
न्तर नहीं हैं, इसका समर्थन इस पुस्तकके दूसरे भागमें किया जायेगा। और जो ऊपर यह कहा गया है कि घ्राण पार्थिव है, सो यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि उसके साधक हेतुमें सूर्यको किरणोंसे तथा जलसिंचनसे व्यभिचार आता है; देखा जाता है कि तेल मर्दन करके धूप में बैठनेपर सूर्यको किरणों के द्वारा गन्धकी अभिव्यक्ति होती है और मिट्टीपर जल सोंचनेसे गन्धकी अभिव्यक्ति होती है। किन्तु न तो सूर्यको किरणें पार्थिव हैं और न जलसिंचन ही। ___ इसी तरह रसनाको जलीय कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उसकी सिद्धिमें जो हेतु दिया गया है उसमें लवण (नमक) से व्यभिचार आता है। क्योंकि लवण यद्यपि जलीय नहीं है किन्तु व्यंजनोंमें डालनेपर उनके रूपादिका व्यंजक न होकर रसका हो व्यंजक होता है। चक्षुको तैजस कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि उसके साधक हेतुमें माणिक्य वगैरह के उद्योतसे व्यभिचार आता है। माणिक्य आदि रत्नोंका उद्योत रूपादिमें से रूपका ही प्रकाशन करता है किन्तु वह तैजस नहीं है। स्पर्शन इन्द्रियको वायुकी कहना भी ठीक नहीं है उसके साधक हेतुमें कपूर वगैरहसे व्यभिचार आता है। पानी वगैरहमें रूपादिके होते हुए भी कपूर शीत स्पर्शका हो व्यजंक होता है, किन्तु वह वायव्य नहीं है। तथा जैसे वायुके स्पर्शका अभिव्यंजक होनेसे स्पर्शन इन्द्रियको वायुका कार्य मानते हो वैसे ही पृथिवी, जल और तेजके स्पर्शका अभिव्यंजक होनेसे स्पर्शन इन्द्रि यके पृथिवी आदिके भी कार्य होनेका प्रसंग आता है । तथा जैसे तेजके रूपका अभिव्यंजक होनेसे चक्षुको तैजस मानते हो वैसे ही पथिवी और जलमें रहवेवाले रूपका अभिव्यंजक होनेसे चक्षुके पृथिवी और जलका कार्य होनेका भी अनुषंग आता है, जैसे जलके रसका अभिव्यंजक होनेसे रसनाको जलीय मानते हो वैसे ही पृथिवीके रसका अभिव्यंजक होनेसे रसनाके पथिर्व.का कार्य होनेका प्रसंग आता है। शब्दके सम्बन्ध में जो कुछ कहा गया है वह भी ठीक नहीं है, आगे दूसरे खण्ड में शब्द के आकाशका गुण होनेका निषेध करेंगे। अतः इन्द्रियोंके किसी प्रतिनियत (निश्चित ) भूतका कार्य होने में प्रमाणका अभाव है। इन्द्रियोंके सांख्यसम्मत आहंकारिकत्वकी समीक्षा
सांख्य एक प्रधान या प्रकृति नामके तत्त्वसे महत् तत्त्वकी अभिव्यक्ति मानता है और महत्तत्त्वसे अहंकारकी अभिव्यक्ति मानता है । अहंकार या
१. न्या० कु० च०, पृ० १५७ । २. 'अभिमानोऽहंकारः तस्माद् द्विविधः प्रवर्तते सर्गः। ऐन्द्रिय एकादशकः तन्मात्रा पञ्चकश्चैव ।। २४ ।।-सांख्यकारिका ।
समीक्षा
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