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प्रमाणके भेद
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समाधान-कारणका धर्म कार्यमें देखा जाता है । जैसे घटाकार ज्ञानको घट कहा जाता है । दूसरी बात यह है कि इन्द्र अर्थात् आत्माके चिह्नको इन्द्रिय कहते हैं | क्योंकि आत्मा तो सूक्ष्म है इन्द्रियके द्वारा ही उसका अस्तित्व जाना जाता है । इन्द्रिय शब्दका यह अर्थ उपयोग में मुख्यतासे घटित होता है क्योंकि जीवका लक्षण उपयोग कहा है । अतः उपयोगको इन्द्रिय कहना उचित ही है ।
इन दोनों इन्द्रियों में से द्रव्येन्द्रिय अप्रधान है; क्योंकि द्रव्येन्द्रियके व्यापार करनेपर भी और प्रकाश आदि सहकारि कारणोंके होते हुए भी भावेन्द्रियके बिना स्पर्शादिका ज्ञान नहीं हो सकता ।
इन्द्रियोंके सम्बन्ध में नैयायिकों के मतकी समीक्षा
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पूर्वपक्ष - अत्यन्त भिन्न जातीय पृथिवी आदिसे अत्यन्त भिन्न जातीय चक्षु आदि इन्द्रियों की उत्पत्ति देखी जाती हैं अतः सब इन्द्रियोंको पौद्गलिक मानना युक्त नहीं है । न्यायभाष्य में लिखा है कि पृथिवीसे घ्राणेन्द्रियको उत्पत्ति होती है । जलसे रसनेन्द्रियकी उत्पत्ति होती है। तेजसे चक्षु इन्द्रियकी उत्पत्ति होती है। और वायुसे स्पर्शन इन्द्रियकी उत्पत्ति होती है । इसीका समर्थन अनुमानसे करते हैं - प्राण इन्द्रिय पार्थिव है; क्योंकि वह रूपादिमें से गन्धको हो अभिव्यक्त करती है । जो रूपादिमें से गन्धको ही अभिव्यक्ति करता है वह पार्थिव होता है । जैसे हथेली के द्वारा नागकेसरकी कणिकाको मलनेसे उसकी गंन्ध व्यक्त होती है और हथेली पार्थिव है । उसी तरह घ्राण इन्द्रिय रूपादिके विद्यमान होते हुए भी गन्धको ही अभिव्यंजक है, अतः वह पार्थिव है । रसना इन्द्रिय जलीय है, क्योंकि वह रसको हो अभिव्यंजक है जैसे लार । चक्षु तैजस है क्योंकि वह रूपको ही अभिव्यंजक है, जैसे दीपक । स्पर्शन इन्द्रिय वायव्य है, क्योंकि वह केवल स्पर्शकी ही अभिव्यंजक है । जैसे वायु जलके शीत स्पर्शका हो व्यंजक है । और श्रोत्रको पौद्गलिक कहना तो अत्यन्त अनुचित है, क्योंकि शब्द अपने समान जातीय विशेष गुणवाली इन्द्रियके द्वारा ही ग्राह्य होता है ।
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उत्तर पक्ष- -उक्त कथन ठोक नहीं है; क्योंकि पृथिवी आदि द्रव्यान्तर नहीं हैं अतः प्रत्येक इन्द्रिय पृथिवी आदिसे उत्पन्न नहीं हुई है । पृथिवो वगैरह द्रव्या
१. न्या० कु० च०, पृ० १५६ ।
२. न्यायसू० १।१।१२ । प्रशस्तपा०, पृ० २२ । वैशे०, सू० ८ २५,६ ।
३. न्या० वा० ता० टी०, पृ० ५३० । न्यायम०, पृ० ४८१ ।
४. न्या० कु० च०, पृ० १५७ | प्रमेयक० मा०, पृ० ६२ ।
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