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जैन न्याय
मुद्गरके व्यापारसे घटाकारसे रहित कपालरूप मृद्रव्यकी उत्पति माननी चाहिए। अतः अभाव प्रमाणकी उत्पत्ति सामग्री तथा विषयका अभाव होनेसे उसे अलग प्रमाण मानना उचित नहीं है ।
इस तरह दर्शनान्तरों में माने गये प्रमाणोंका अन्तर्भाव प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणोंमें हो जानेसे प्रमाणके दो ही मूलभेद हैं। इसीसे आचार्य माणिक्यनन्दिने सांव्यवहारिक प्रत्यक्षका लक्षण इस प्रकार किया है"इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशतः सांव्यवहारिकम् ॥ ५॥"
-[परीक्षामुख, २ परिच्छेद ] -अर्थात् इन्द्रिय और मनके निमित्तसे होनेवाले एकदेश स्पष्ट ज्ञानको सांव्यव. हारिक प्रत्यक्ष कहते हैं ।
इन्द्रियके भेद इन्द्रिय के पांच भेद हैं-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षुः और श्रोत्र । इनमें से प्रत्येक इन्द्रिय द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रियके भेदसे दो-दो प्रकारको होती हैं। इन्द्रियोंके बाह्य और आभ्यन्तर आकाश रूप परिणत पुद्गलोंको द्रव्येन्द्रिय कहते हैं जैसे श्रोत्र आदि इन्द्रियोंमें जो पुद्गलोंको कर्णशष्कुली आदि बाह्य रूपमें रचना है और जो कदम्ब गोलकके आकार रूप आभ्यन्तर रचना है वह सब द्रव्येन्द्रिय है । लब्धि और उपयोगको भावेन्द्रिय कहते हैं । ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम विशेषको लब्धि कहते हैं। उसके निमित्तसे जो आत्माका जानने रूप विशेष परिणाम होता है, उसे उपयोग कहते हैं। इनमें से लब्धि रूप भावेन्द्रिय तो स्व और अर्थको जाननेको योग्यता रूप है और उपयोग रूप भावेन्द्रिय स्व और अर्थको जानने में व्यापार रूप है। बिना व्यापारके स्पर्शनादि इन्द्रिय स्पर्शादिको नहीं जान सकतीं।
शंका-उपयोग तो इन्द्रियका फल ( कार्य ) है उसे इन्द्रिय क्यों कहा है ?
१. प्रमेय क० मा०, पृ० २०३-२१६ । २. पंचेन्द्रियाणि ॥ १५ ॥ द्विविधानि ॥ १६ ॥ निवृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् ॥ १७ ॥
लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् ॥ १८४ ॥ तत्त्वार्थसूत्र, २ अध्याय । ३. इन्द्रियफलमुपयोगः। तस्य कथमिन्द्रियत्वम् ? कारणधर्मस्य कार्ये दर्शनात् यथा
घटाकारपरिणतं विज्ञानं घट इति । स्वार्थस्य तत्र मुख्यत्वाच्च । इन्द्रस्य लिंगमिन्द्रियमिति यः स्वार्थः स उपयोगे मुख्यः, उपयोगलक्षणो जीव इति वचनात् । अत उपयोगस्येन्द्रियत्वं न्याय्यम् । -सर्वार्थसिद्धि अ० २, सू० १८ ।
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