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________________ - प्रमाणके भेद भी घट नहीं है ऐसा बोध होना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता, अतः जैसे भूतलसे घट अर्थान्तर है वैसे ही घटाभाव भी अर्थान्तर है। __ जैन-उक्त कथन ठीक नहीं है; क्योंकि घटमें कभी भी न पाये जानेवाले भूतलगत असाधारण धर्मोसे युक्त भूतलको घटाभाव कहा जाता है किन्तु घटयुक्त भूतल घट और भूतलके संयोगरूप साधारणधर्मसे विशिष्ट होनेसे घटयुक्तरूपसे परिणमित है अत: 'भूतल घटरहित है' ऐसा उस समय नहीं कहा जा सकता। ___ अभावके चारों प्रकार भावान्तर स्वभावरूप है। जिसके अभावमें नियमसे कार्यको उत्पत्ति होती है, उसे प्रागभाव कहते हैं। घटकी उत्पत्तिसे पूर्ववर्ती अनन्तर परिणाम विशिष्ट मिट्टी घटका प्रागभाव है। यदि प्रागभावको तुच्छाभाव रूप माना जायेगा तो गायके नियमसे एक साथ उत्पन्न होनेवाले दायें और बायें सींगोंके उपादानमें संकरताका प्रसंग आयेगा; क्योंकि तुच्छाभाव रूप प्रागभाव तो एक ही है। यदि कहा जायेगा कि जिस उपादान कारणमें जब जिस प्रागभावका अभाव होता है, उस उपादान कारणमें तब उस कार्यको उत्पत्ति होती है, तो ऐसा कहना भी युक्त नहीं है; क्योंकि इसका यह प्रागभाव है यही नियम नहीं बनता। प्रध्वंसाभाव भी भावस्वभाव ही है। जिसके होनेपर नियमसे कार्यका विनाश होता है उसे प्रध्वंसाभाव कहते हैं। उसे यदि तुच्छ स्वभाव माना जायेगा तो घटके विनाशके लिए मुद्गर आदिका व्यापार व्यर्थ हो जायेगा। मुद्गरके व्यापारसे घटका प्रध्वंस भिन्न किया जाता है या अभिन्न ? यदि भिन्न किया जाता है तो घट नष्ट हो गया, ऐसा प्रत्यय नहीं होना चाहिए। यदि कहा जायेगा कि विनाशके सम्बन्धसे ऐसा प्रत्यय होता है, तो विनाश और घटका क्या सम्बन्ध है ? तादात्म्य सम्बन्ध तो हो नहीं सकता क्योंकि आप दोनोमें भेद मानते हैं। तदुत्पत्ति सम्बन्ध भी नहीं हो सकता क्योंकि घट विनाशका कारण नहीं है । उसका विनाश तो मुद्गर आदिके निमित्तसे हुआ है। यदि घट और मुद्गर दोनोंको ही उसका कारण माना जायेगा तो विनाशके बाद जैसे मुद्गर बना रहता है घट भी बना रहेगा । यदि कहा जायेगा कि घट अपने विनाशका उपादान कारण है इसलिए विनाशके बाद घटकी उपलब्धि नहीं होती। तो अभावको भावान्तर स्वभावरूप मानना होगा; क्योंकि घट भावान्तर कपालादिका ही उपा. दानकारण होता है, अत: मुद्गरके व्यापारसे घटसे भिन्न विनाश नहीं किया जाता। और घटसे अभिन्न विनाशके करनेपर तो मुद्गरने घटको किया यही कहा जायेगा, क्योंकि घट और विनाश अभिन्न है। अतः अन्धपरम्पराको त्यागकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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