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________________ १२० जैन न्याय ग्रहण माननेपर प्रतियोगी और अप्रतियोगीका व्यवहार नहीं बन सकता। तथा यदि अनुभूत वस्तुमें भी प्रतियोगीके स्मरणके बिना अभावको प्रतिपत्ति नहीं होती तो अनुभूत प्रतियोगीका हो स्मरण होना चाहिए। और उसका अनुभव अन्यसे असंसृष्ट रूपसे मानना चाहिए। तथा उसकी भी अन्यसे असंसृष्ट रूपसे प्रतिपत्ति उससे अन्यत्र प्रतियोगीके स्मरणपूर्वक होगी। और आगे भी ऐसा ही होनेसे अनवस्था दोष आता है। यदि कहा जाये कि प्रतियोगी भूतलके स्मरणसे घटको अन्यसे असंसृष्टताको प्रतीति होती है और उसके स्मरणसे भूतलकी अन्यसे असंसृष्टताकी तो परस्पराश्रय दोष आता है । उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार हैजबतक घटसे असंसृष्ट भूतल प्रतियोगीके स्मरणसे घटकी भूतलसे असंसृष्टताकी प्रतिपत्ति नहीं होगी तबतक भूतलसे असंसृष्ट घट प्रतियोगीके स्मरणसे भूतलकी घट-असंसृष्टताको प्रतिपत्ति नहीं होगी, और जबतक भूतलको घट असंसृष्टताकी प्रतीति नहीं होगी तबतक घट असंसृष्ट भूतलके स्मरणसे घटकी असंसृष्टतोकी प्रतीति नहीं होगी। अतः परस्पराश्रय दोषसे बचनेके लिए अन्य प्रतियोगीके स्मरणके बिना ही भावांशकी तरह अभावांशका भी प्रत्यक्ष मानना चाहिए। और ऐसा माननेपर यह कहना उचित नहीं है कि 'प्रत्यक्षसे अभावको प्रतीति नहीं होती; क्योंकि अभाव प्रत्यक्षका विषय नहीं है। __ अब प्रश्न रहता है अभावके भेदोंका, सो अपने कारणकलापोंसे पदार्थ अपनेअपने स्वभावमें व्यवस्थित ही उत्पन्न होते हैं और वे अपनेको अन्यसे मिलाते नहीं है । उनका स्वरूप अन्यसे व्यावृत्त होता है, उनसे भिन्न कोई अन्य अभावांश नहीं हैं। यदि हो तो वह अभावांश भी पररूप हुआ अतः पदार्थको उससे भी व्यावृत्त होना चाहिए । इस तरह अपरापर अभावकी परिकल्पनासे अनवस्था दोष आता है। अतः अभाव भावसे सर्वथा भिन्न नहीं है। ___ मीमां०-यदि अभावको अर्थान्तर नहीं माना जाता तो अभावमूलक व्यवहार कैसे बनेगा? आप जैन लोग घटसहित भूतलको घटाभाव कहते हैं या घटरहित भूतलको घटाभाव कहते है ? प्रथम पक्षमें तो प्रत्यक्ष विरोध है। दूसरे पक्षमें तो नाममात्रका भेद है-घटरहित कहो या घटाभावविशिष्ट कहो एक ही बात है। जैन-तो क्या भूतल घटाकार है कि जिससे 'घट नहीं है' ऐसा कहनेपर प्रत्यक्ष विरोध होता है ? क्योंकि भूतल घटाकारसे रहित होनेसे घट नहीं ही है, यह सत्य है। मीमां०.--यदि भूतलसे घटाभाव अर्थान्तर नहीं है, तो घटसे युक्त भूतल में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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