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________________ प्रमाणके भेद की उत्पत्ति प्रत्यक्षसे जिसका अविनाभाव सम्बन्ध जान लिया गया है ऐसे लिंगसे होती है। किन्तु अर्थापत्तिका विषयभूत अर्थ कभी भी प्रत्यक्षका विषय नहीं होता । अनुमानपूर्वक अर्थापत्ति-जैसे सूर्यमें गमनसे गमन करनेकी शक्तिकी कल्पना करना । वहाँ एक देशसे देशान्तर में सूर्यको देखकर उसके गमनका अनु. मान किया जाता है और उससे उसमें गमनशक्तिकी कल्पना की जाती है। श्रुतपूर्वक अर्थापत्ति-'मोटा देवदत्त दिनको भोजन नहीं करता' यह बात सुन. कर यह कल्पना करना कि देवदत्त रात्रि भोजन करता है; क्योंकि भोजन किये बिना मुटापा नहीं हो सकता। उपमानपूर्वक अर्थापत्ति-जैसे, वयके सादृश्यसे गोको जानकर यह कल्पना करना कि गौमें उपमान प्रमाणके द्वारा ज्ञात हो सकनेकी शक्ति है। अर्थापत्तिपूर्वक अर्थापत्ति-जैसे शब्दमें अर्थापत्तिसे जानी गयी वाचक शक्तिसे अभिधानकी सिद्धिके लिए शब्दके नित्यत्वका ज्ञान । अर्थात् शब्दसे अर्थको प्रतीति होती है, उससे उसकी वाचकशक्ति की प्रतीति होती है और उससे भी शब्दकी नित्यताकी प्रतीति होती है। अभावपूर्वक अर्थापत्ति-जैसे अभाव प्रमाणसे घरमें चैत्र नामके व्यक्तिका अभाव जानकर यह कल्पना करना कि चैत्र कहीं बाहर गया है; क्योंकि जीवित होते हुए भी घरमें नहीं है। इस प्रकार अर्थापत्ति नामका एक प्रमाण है। मीमांसकके मतसे अभाव नामका भी एक प्रमाण है। जैसे, 'इस भूतलपर घट नहीं है', यहां घटका अभाव-अभाव प्रमाणके द्वारा जाना गया है; क्योंकि कहा है-जिस वस्तु रूपमें सद्भावग्राही पाँचों प्रमाणोंकी प्रवृत्ति नहीं होती, वहाँ वस्तुकी सत्ताको जानने के लिए अभाव प्रमाण उपयोगी होता है । अभावका ज्ञान प्रत्यक्षसे तो होता नहीं, क्योंकि वह अभावको विषय नहीं कर सकता। इन्द्रियोंका सम्बन्ध भावांशके ही साथ होता है। न अनमानसे अभावको जाना जा सकता है क्योंकि हेतुका अभाव है। शायद कहा जाये कि अभाव प्रमाणके विषयभूत अभावका अभाव होनेसे अभावप्रमाणकी मान्यता व्यर्थ है। किन्तु ऐसा माननेपर लोकप्रसिद्ध अभावके व्यवहारका ही अभाव हो जायेगा। यदि अभावको वस्तुरूप नहीं माना जायेगा तो उसके प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव भेद नहीं हो सकते । अतः अर्थापत्तिसे अभाव वस्तुरूप सिद्ध होता है। यदि उक्त चारों प्रकारके अभावोंके व्यवस्थापक अभावप्रमाणको नहीं माना जायेगा तो प्रतिनियत वस्तु व्यवस्थाका १. मी० श्लो० अर्था० परि० श्लो० ३-६ । २. मी० श्लो०, प्रभाव, श्लो०१। ३. वही, श्लो० १८। Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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