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. जैन न्याय
लोप हो जायेगा।
शायद कहा जाये कि वस्तु तो निरंश है, अतः प्रत्यक्षसे वस्तुका सर्वात्मना ग्रहण होनेपर कोई अगृहीत असत् अंश शेष न रहने से उसके ग्रहण करनेके लिए अभाव प्रमाणकी आवश्यकता नहीं है । किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्योंकि वस्तु सदसदात्मक है उसमें से प्रत्यक्ष आदिके द्वारा संदशका ग्रहण होनेपर भी अगृहीत असत् अंशको ग्रहण करने के लिए अभाव प्रमाणको मानना आवश्यक है। अतः अर्थापत्ति की तरह अभाव भी एक पृथक् प्रमाण है। भनुमानमें अर्थापत्तिका अन्तर्भाव
जैनोंका कहना है कि अर्थापत्तिका अनुमानमें अन्तर्भाव होता है। विशेष इस प्रकार है-प्रश्न यह है कि अर्थापत्तिका उत्थापक जो अर्थ जिस अदृष्ट अर्थको परिकल्पनामें निमित्त होता है, उसका उसके साथ अविनाभाव सम्बन्ध ज्ञात होता है या नहीं। यदि नहीं ज्ञात होता है तो, जिसके बिना भी वह हो सकता है, उसकी भी कल्पना करा देगा, अथवा जिसके बिना वह नहीं होता है, उसकी भी कल्पना नहीं करा सकेगा, क्योंकि अर्थापत्तिके उत्थापक अर्थके अविनाभाव सम्बन्धका ज्ञान नहीं होनेपर अदृष्ट अर्थकी परिकल्पना सम्भव नहीं है। यदि सम्भव हो तो जिसका अविनाभाव अनिश्चित है, ऐसे लिंगसे भी परोक्ष अर्थका अनुमान किया जा सकेगा और ऐसो स्थितिमें लिंगमें और अर्थापत्तिके उत्यापक अर्थमें कोई भेद नहीं रहेगा। - यदि अर्थापत्तिका उत्थापक अर्थ जिस अदृष्ट अर्थकी कल्पनामें निमित्त होता है, उसका उसके साथ अविनाभाव सम्बन्ध ज्ञात होता है तो अर्थापत्ति और अनुमानमें कोई भेद नहीं रहता, क्योंकि अविनाभाव रूपसे जाने हुए एक सम्बन्धीसे दूसरेका बोध करना दोनोंमें ही समान है।
तथा अर्थापत्तिके उत्थापक अर्थका अविनाभाव सम्बन्ध अर्थापत्तिसे हो जाना जाता है या अन्य प्रमाणसे । प्रथम पक्ष में अन्योन्याश्रय नामक दोष आता है, क्योंकि अविनाभाव रूपसे ज्ञात अर्थापत्तिके उत्थापक अर्थसे अर्थापत्तिको प्रवृत्ति होती है और अर्थापत्तिको प्रवृत्ति होनेसे अर्थापत्तिके उत्थापक अर्थके अविनाभाव सम्बन्धकी प्रतिपत्ति होती है। अतः मीमांसकका यह कयन उचित नहीं है कि अर्थापत्तिमें अविनाभावरूपताका ज्ञान तत्काल हो जाता है।
१. प्रमेयक० मा०, पृ० १८७-१६२ । २. प्रमेयकमा०, पृ० १६३-१६५। .
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