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________________ ११४ जैन न्याय . इस तरह जैनदर्शनमें प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे मूल प्रमाण दो माने गये हैं । किन्तु चार्वाक एक प्रत्यक्ष प्रमाण ही मानता है । चार्वाकका एक प्रमाण ____ चार्वाकका कहना है कि प्रत्यक्ष नामक एक ही प्रमाण है; क्योंकि प्रमाण अगौण होता है। अर्थनिश्चायक ज्ञानको प्रमाण कहते हैं, किन्तु अनुमानसे अर्थका निश्चय नहीं होता। दूसरे, व्याप्तिका ग्रहण होनेपर अनुमानकी प्रवृत्ति होती है । व्याप्तिका ग्रहण प्रत्यक्षसे तो सम्भव नहीं है; क्योंकि प्रत्यक्ष तो निकटवर्ती अर्थको ही ग्रहण करता है, अतः वह समस्त पदार्थोंको लेकर व्याप्तिका ग्रहण करने में असमर्थ है। अनुमानसे भी व्याप्तिका ग्रहण सम्भव नहीं है; क्योंकि अनुमान व्याप्तिग्रहणपूर्वक होता है। अत: अनुमानसे व्याप्तिका ग्रहण माननेपर अनवस्था और इतरेतराश्रय नामक दोष आते हैं। अन्य कोई प्रमाण व्याप्तिका ग्राहक नहीं है। तब अनुमान प्रमाण कैसे सम्भव है। अतः एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। जैनोंका कहना है कि चार्वाकका उक्त कथन विचारपूर्ण नहीं है। प्रत्यक्षको तरह अनुमान भी अपने विषयमें अविसंवादक होनेसे प्रमाण है। अनुमानके द्वारा जाने हुए अर्थमें विसंवादका अभाव होता है। अनुमानको चार्वाक गौण क्यों मानते हैं, क्या उसका विषय गौण है या प्रत्यक्षपूर्वक होनेसे वह गौण है ? प्रथम पक्ष ठीक नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षकी तरह अनुमानका भी विषय वास्तविक सामान्य विशेषात्मक वस्तु है। जैन बौद्धोंकी तरह कल्पित सामान्य रूप वस्तुको अनुमानका विषय नहीं मानते हैं। और यदि प्रत्यक्षपूर्वक होनेसे अनुमानको गोण कहते हैं, तो कोई कोई प्रत्यक्ष भी अनुमानपूर्वक होता है, अतः वह भी गौण कहलायेगा; क्योंकि दूरसे अनुमानसैं अग्निको जानकर जब मनुष्य अग्निके . पास जाता है तो प्रत्यक्षसे अग्निको जानता है । ____ तथा हम व्याप्तिका ग्रहण तक नामक प्रमाणसे मानते हैं। तर्क प्रमाणके बिना तो आप यह भी नहीं कह सकते कि प्रत्यक्ष ही प्रमाण है; क्योंकि वह अगौण है । दूसरी बात यह है कि अनुमान प्रमाणके बिना चार्वाक दर्शनवाले अतीन्द्रिय परलोक, आत्मा, स्वर्ग आदिका अभाव कैसे सिद्ध करेंगे । कहा भी है 'प्रमाणेतरसामान्यस्थितेरन्यधियो गतेः । प्रमाणान्तरसद्भावः प्रतिषेधाच्च कस्यचित् ॥' १. प्रमेयक० मा०, पृ० १७७-१८० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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