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प्रमाणके भेद
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बतलाना । अतः जब मतिज्ञानको इन्द्रियप्रत्यक्ष माना गया तो उसके सहयोगी स्मृति आदिको प्रत्यक्ष अन्तर्गत लेना ही चाहिए ।
किन्तु अकलंक देवके ग्रन्थोंके प्रमुख टोकाकार अनन्तवीर्य और विद्यानन्दको स्मृति आदिको अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष मानना अभीष्ट नहीं हुआ । विद्यानन्दने अपनी प्रमाण परीक्षा में अकलंकके मतानुसार प्रत्यक्ष के इन्द्रिय प्रत्यक्ष, अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष भेद तो किये किन्तु अवग्रहसे लेकर धारणा पर्यन्त ज्ञानको एक देश स्पष्ट होनेके कारण इन्द्रियप्रत्यक्ष और अनिन्द्रियप्रत्यक्ष माना तथा स्मृति आदिको परोक्ष ही माना । उत्तरकालीन जैन ताकिकोंने भी इन्द्रियजन्य ज्ञानको तो एक मतसे सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष मानना स्वीकार किया किन्तु स्मृति आदिको किसीने भी अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष नहीं माना । और अकलंक देवने सूत्रकारके मतकी रक्षा करनेके लिए जो प्रयत्न किया था, वह सफल नहीं हो सका । किन्तु उनकी शुद्ध तार्किक प्रमाणपद्धतिको सबने एक स्वरसे अपनाया ।
मुख्यमें अवधि आदि
इस तरह अकलंकदेव के पश्चात् दोनों जैन सम्प्रदायोंके सभी आचार्योंने अपनी-अपनी प्रमाणविषयक रचनाओंमें कुछ भी फेर फार किये बिना एक ही रीति से अकलंकदेव के द्वारा किये गये ज्ञानके वर्गीकरणको स्वीकार किया है । सभीने प्रत्यक्ष के मुख्य और सांव्यवहारिक दो भेद करके तीन ज्ञानोंको और सांव्यवहारिकमें मतिज्ञानको लिया है। तथा परोक्षके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ये पांच भेद करके उक्त प्रत्यक्ष के सिवाय और सब प्रकार के ज्ञानोंको परोक्षके पाँच भेदों में से किसी-न-किसी भेदमें गर्भित कर लिया है । जैनदर्शन में प्रमाण के भेद निम्न प्रकारसे हैं-
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प्रत्यक्ष
I
1 सांव्यवहारिक
I
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प्रमाण
मुख्य I
अवग्रह ईहा अवाय धारणा अवधि, मन:पर्यय केवल स्मृति, प्रत्यभिज्ञान तर्क
अनुमान, आगम
पराक्ष
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